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अनेकान्त/३२ मुख्य रचनाकाल वि स १२८५ का हि विक्रम की तेरहवी शती का उत्तरार्ध ही उनका रचना काल था। आशाधर के व्यक्तित्व और कर्तव्य के उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि आशाधर ने राजस्थान मेवाड के माडलगढ को अपनी जन्मभूमि मध्यप्रदेश की धारा नगरी को विद्या भूमि और नालछा को अपनी कर्मभूमि बनायी थी। उन्होने अध्यापन, शास्त्रसभा नित्यस्वाध्याय साहित्यसजन कर के केवल जैनधर्म और समाज को अपना योगदान दिया, बल्कि राष्ट्र का गौरव बढाया था। आशाधर मुनि या योगी नही थे लेकिन वे योगियो के मार्गदर्शक और उनके अध्याणक थे। आचार्य कुन्दकुन्द के समान आशाधर बहुश्रुत विद्वान थे। सस्कृत भाषा पर उनका पूरा अधिकार था, इसीलिए उन्होने सस्कृत भाषा मे ग्रन्थो की रचना की थी। प. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने कहा भी है-“सस्कृत भाषा का शब्द भण्डार भी उनके पास अपरिमित है और वे उसका प्रयोग करने मे कुशल है। इसी से इनकी रचना क्लिष्ट हो गयी है। यदि उन्होंने उस पर टीका न रची होती तो उसको समझना सस्कृत के पण्डित के लिए भी कठिन हो जाता।
इनकी कृतियो की सबसे बडी बात दुरभिनिवेश का अभाव है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि पण्डित आशाधर वास्तव मे कलिकालिदास थे। उनहोने धार्मामृत जैसे महाकाव्यो का सृजन किया। इनकी ग्रन्थो की भाषा भी पौढ सस्कृत हैं ये कहना सच है कि यदि उन्होने अपनी ग्रन्थो की रचना न की होती तो उनको समझना कठिन हो जाता। विविध विषयो से सम्बधित १०८ ग्रन्थो की रचना कर उन्होने स्वयं अपने आप को कालिदास सिद्ध किया है।
सन्दर्भ
१ सिद्धान्ताचार्य पं कैलाशचन्द्र शास्त्री धर्मामृत (अनगार) भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली,
सन् १६६६ प्रस्तावना, पृ. ३८ द्रस्टव्य-बघेरवाल सन्देश (अखिल भारत वर्षीय दि जैन बघेरवाल सघ, कोटा, राजस्थान) वर्ष २८ अंक ५ मई १६६३ पृ० १४ इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हणेन कवीशिना। श्री विन्ध्यभूपति महासन्धि विग्रहिकेण य।। आशाधरत्व मयि विद्धि सिद्ध निसर्ग सौदर्यमजर्यमार्य । सरस्वती पुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपञ्च ।। प. आशाधर सागार धर्म (जैन साहित्य प्रसारक, कार्यालय, हीराबाग, गिरगॉव बम्बई वी नि स २४५४. सन् १६२८ ई०) भव्य कुमुद चन्द्रका टीका, प्रशस्ति श्लोक ६ एवं ६४ प्रज्ञा पुञ्जोसीति च पांमिहितो मदन कीर्तिमति पतिना। अनगार धर्मामृतम् (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला १४ वॉ पुष्प स पं वंशीधर शास्त्री हीराबाग बम्बई वी नि सं २४४५, सन, १६१६) प्रशस्ति श्लोक४।