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अनेकान्त/२०
आगम भाषा और लिपि
न्यायमूर्ति एम एल जैन प्राकृत भाषा मे निबद्ध दि. जैन आगम के सम्पादन को लेकर कुछ समय से दो विभिन्न मत सामने आए है। एक पक्ष का विचार है कि
“सम्पादन के लिए किसी प्राचीन प्रति को जिसके सम्बन्ध मे यह विश्वास हो कि उसके पाठ प्राय शुद्ध है आदर्श प्रति मान लिया जाता है। आदर्श प्रति के अतिरिक्त लिखित या मुद्रित जो भी प्रतियाँ मिल सकती है उनसे पाठ का मिलान किया जाता है। पाठ भेद होने की दशा में प्राचीन प्रति या आदर्श प्रति के पाठ का व्याकरण आदि की दृष्टि से अन्त परीक्षण किया जाता है। इस प्रकार पाठ का निर्धारण किया जाता है। पाठ निर्धारण की यह विद्वत्सम्मत प्रक्रिया है।
दूसरे पक्ष का विचार है कि किसी ऐसे पाठ को जो प्राचीनतम (या आदर्श) प्रति मे है इसलिए नहीं बदला जा सकता कि वह व्याकरण सम्मत नहीं है ऐसा करना आगम में परिवर्तन करना है। टिप्पण दिया जाना प्राचीन परपरा है।
इस विषय मे मेरे समान 'अल्पश्रुत' व्यक्ति के लिए कुछ निश्चय करना उतना ही कठिन है जितना आगम का अर्थ करना-समझना ।फिर भी यह कुछ लिखने का साहस इसलिए है कि कदाचित इस विषय पर कुछ प्रकाश पडे ।
भरत के नाटयशास्त्र (१-२ ई. सदी) के अनुसारचतुर्विधा प्रवृत्तिश्च प्रोक्ता नाटय प्रयोकतृभिः
आवन्ती, दाक्षिणात्या च पान्चाली चोड्रमागधी अर्थात् नाटको मे चार प्रकार की प्राकृत का प्रयोग होता है
पश्चिम की आवन्ती दक्षिण की दाक्षिणात्य उत्तर की पाञ्चाली
पूर्व की ओड्रमागधी अशोक के शिलालेखो की भाषा मौर्य काल से पहले से चली आ रही पर्याप्त उन्नत मागधी प्राकृत है। वह भी सारे भारत मे न प्रचलित थी और न हो ही सकती थी। अत उस पर भी विभिन्न प्रदेशो की भाषाओं का असर दिखाई पडता है जैसे गिरनार के शिलालेख में पैशाची प्राकृत का प्रभाव ।