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अनेकान्त/२७ (घ) कृतियाँ पं. आशाधर नेधारा नगरी छोडकर नालछा आने के पश्चात् साहित्य-सृजन कार्य आरम्भ किया। कृतियों की रचना, साहित्य सेवा और जिनवाणी की सेवा एवं उपासना का केन्द्र बनाया। आशाधर का अध्ययन अगाध और अभूतपूर्व था। यही कारण है कि उन्होने संस्कृत भाषा में न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, अध्यात्म, पुराण, शब्दकोष, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र वैद्यक (आयुर्वेद) ज्योतिष आदि विषयों से सम्बंधित विपुल ग्रन्थों की रचना कर जेनवाङमय को समृद्ध करने में अभूतपूर्व योगदान किया। शांतिकुमार ठवली के अनुसार आशाधर ने १०८ ग्रन्थों की रचना की थी। वे लिखते है कि
उनकी एक सौ आठ रचनाओं का पता चला है। और भी न मालूम कितनी रचनाएँ नष्ट व अज्ञात रही है। ज्ञात रचनाओं मे प्रथमानुयोग की ११. करणानुसयोग की चार, चरणानुयोग की ११, द्रव्यानुयोग की ८ विशेष है तथा पूजन, विधान, भक्ति, प्रतिष्ठा, टीका आदि ७० ग्रन्थ उपलब्ध है और अष्टांग हृदय संहिता, शब्द त्रिवेणी, जैनेन्द्र प्रवृति, काव्यालकार टीका आदि का उल्लेख तथा पता भी मिलता है २६ ।
लेकिन ठवली ने अपने कथन मे किसी प्रमाण का उल्लेख नहीं किया है। पं. आशाधर ने जिन यज्ञकल्प, सागार धर्मामृत टीका और अनागार धर्मामृत टीका की प्रशस्तियों में अपने ग्रन्थो का उल्लेख किया है तथानुसार उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नांकित हैं। :
(अ) जिनयज्ञकल्प की प्रशस्ति में उल्लिखित ग्रन्थ जिनयज्ञकल्प ३० की प्रशस्ति के अनुसार यह ग्रन्थ विक्रम सं. १२८५ में पूरा हुआ था। इसमें इसके पूर्व मे लिखें गए ग्रन्थो का उल्लेख है कि जो निम्नाकित है(१) प्रमेयरत्नाकर . पं. आशाधर ने स्याद्वाद विद्या का विशद प्रसाद कहा है। यह तकशास्त्र विषयक ग्रन्थ है। इसकी रचना पद्यो में की गई थी। आशाधर ने कहा है कि इसमें निर्दोष विद्यामत का प्रवाह बहता है। यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। इसकी प्रति सोनागिरि में होने का उल्लेख विद्वानो मे किया है ३१ (२) भरतेश्वराम्युदय काव्य : इसे आशाधर ने सिध्यक भी कहा है क्योकि इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिमवृत मे "सिद्धि' शब्द का प्रयोग हुआ हैं । इस सत्काव्य में भरत चक्रवर्ती के जीवनवृत्त विशेष कर मोक्ष प्राप्ति का वर्णन रहा होगा। क्योंकि यह काव्य अध्यात्मरस से युक्त था। प्रस्तावना से यह भी ज्ञात होता हे कि कवि ने इसकी रचना अपने का के लिए कीथी। इस पर उन्होंने टीका भी की थी। दुर्भाग्य से आज यह उपलब्ध नहीं हैं। इसकी पाण्डुलिपि सोनागिरी मे मौजूद है। (३) धर्मामृत : धर्मामृत की रचना अनगार और सागार इन दो भागो में हुई है । अनगार धर्मामृत मे मुनि धर्म का वर्णन करते हुए मुनियो के मूल और उत्तरगुणो का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया हैं। इसमे ६ अध्याय है। पहले अध्याय में ११४ श्लोको के द्वारा