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अनेकान्त/२६ (१२) जिनसहस्त्रनामस्तवन सटीक ३६ : इस ग्रन्थ पर श्रुतसागर सूरि ने टीका रची है। इसी टीका सहित यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञान पीठ वाराणसी और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला सोलापुर से प्रकाशित है। (१३) नित्यमहोद्योत ४०: इसमे भगवान अर्हन्त के महाभिषेक से सम्बन्धित स्नान आदि का वर्णन हैं। इस पर श्रुतसागर सूरि की टीका भी है। इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से जिनसहस्रनाभ सटीक और बनजीलाल जैन ग्रन्थमाला से अभिषेक पाठ संग्रह मे श्रुतसागरी टीका सहित हो चुका है ४१ । (१४) रत्नत्रयविधान ४२ : यह अभी तक अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित पाण्डुलिपि बम्बई के सरस्वती भवन मे है। इसमे रत्नत्रय पूजा क माहात्म्य वणित है। (१५) जिनयज्ञकल्प ४३ : प्रशस्ति मे बतलाया गया है कि नलकच्छपर के नि खण्डेलवाल वश के भूषण अल्हण के पुत्र पापासाह के आग्रह से वि स १२८५ मे
न शुक्ला पूर्णिमा को प्रमारवश के भूषण देवपाल राजा के राज्य मे नलकच्छपुर मे नेमिनाथ जिनालय मे यह ग्रन्थ रचा गया था । यह युग अनुरूप प्रतिष्ठाशास्त्र था। इसका प्रकाशन जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय से स १६७४ मे 'प्रतिष्ठासारोद्धार के नाम से हुआ था। इसमे हिन्दी टीका भी है। इसके अन्त मे प्रशस्ति है, जिसमे वि स. १२८५ तक रचित उपर्युक्त ग्रन्थो का नामाकन हुआ है। इसमे छ अध्याय है। (१६) जिनयज्ञकल्पदीपक सटीका ४४: इसकी एक प्रति जयपुर मे होने का उल्लेख प. नाथूराम प्रेमी ने किया हैं ४५ । (१७) त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र सटीक ४६ : इसके नाम से ही सिद्ध होता है कि इसमे त्रेसठ शलाका पुरूषो का वर्णन है। इसका प्रकाशन मराठी भाषा टीका सहिता सन् १६३७ मे माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला शोलापुर से ३७ वे पुष्प के रूप मे हो चुका है। आशाधर ने प्रशस्ति के भाष्य मे लिखा है। कि आर्षमहापुराणों के आधार पर शलाका पुरूषो का जीवन का वर्णन किया है उन्होने त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र पर स्वोपज्ञ टीका भी रची थी। वि. सं १२६२ मे नलकच्छपर मेराजा देवपाल के पुत्र जैतूगिदेव के अवन्ती में राज्य करते समय रचा था ४७ । (१८) सागार धर्मामृत टीका ४८ : इस भव्यकुमुदचन्द्रिका नामक सागारधर्मामृत की टीका की रचना वि. स १२६६ मे पू. वदी सप्तमी के दिन नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय मे हई थी४६। इस ग्रन्थ के निर्माणकाल के समय प्रमारवश को बढ़ाने वाले देवपाल राजा के पुत्र श्रीमत् जैतुगिदेव अवन्ति का मे राज्य करते थे ५०| प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि पोरवाड्वश के समृद्ध सेठ (श्रेष्ठि) के पुत्र महीचन्दसाहू के अनुरोध किए जाने पर श्रावक धर्म के लिए दीपकरूप इस ग्रंथ की रचना की थी उन्ही मही चद साह ने सर्वप्रथम इसकी प्रथम पुस्तक लिखी थी ५१। इसके अंत मे २४ श्लोको की प्रशस्ति भी उपलब्ध है। यह टीका विं.सं १६७२ मे माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से दूसरे पुष्प के रूप में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात् जैन साहित्य प्रसार कार्यालय गिरगॉव बम्बई से वीर नि स २४५४, सन १६२८ मे, प्रकाशित हई।