Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 20
________________ अनेकान्त/१६ भारत में अधिक फैलाव हुआ। सम्राट खारवेल ने अपने राजनैतिक प्रभाव से इस भाषा को वहाँ संरक्षण प्रदान किया' (राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी में वितरित पत्रक) यह कितना बड़ा भ्रामक प्रचार हैं जबकि उक्त दोनों ग्रन्थो से पूर्व के कोई ग्रन्थ आज भी उपलब्ध नहीं हैं। खारबेल के शिलालेख : सगोष्ठी मे वितरित पत्रक मे कहा गया है कि सम्राट खारवेल ने अपने राजनैतिक प्रभाव से इस भाषा (प्राचीन शौरसेनी) को वहाँ संरक्षण प्रदान किया। उक्त सरक्षण कार्य के विषय में कुदकुंद भारती की ओर से कोई ऐतिहासिक प्रमाण या खारवेल के आदेश पत्र का कोई प्रमाण तो प्रस्तुत नहीं किया गया। हॉ, वहाँ के संपादक ने 'मुन्नुडि पृ.६ पर हाथी गुंफा के शिललेख का उद्धरण देते हुए शिला मे अकित 'नमो सव सिधान' शब्द का संकेत अवश्य दिया है। यह शिलालेख खारवेल (मौर्यकाल के १६५ वे वर्ष) का है उक्त शिलालेख में णमोकार मत्र के 'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधान' का उल्लेख है और इसी शिलालेख मे 'पसासित, पापुनाति, कारयति, पथापयति, वितापति आदि ऐसे बहुत से शब्द है जो प्राचीन या नवीन किसी भी शौरसेनी के नहीं है। क्योकि शौरसेनी मे 'त' के स्थान में 'द' करने का अकाटय नियम है और यहाँ क्रियापदो मे सर्वत्र 'त' का प्रयोग हैं। (देखे जैन शिलालेख सग्रह २ भाग पृ० ४) इसके सिवाय दिगम्बरों में णमोकार मंत्र का प्रचलन 'ण' प्रमुख है और इस मंत्र का सर्वप्रथम उल्लेख जो षट् खण्डागम के मगलाचरण में उपलब्ध है उसमें भी मत्र मे सर्वत्र 'ण' का उल्लेख है। तो प्रश्न होता है कि 'न' और 'ण' इन दोनो में प्राचीन शौरसेनी कौनसी है और नवीन कौनसी हैं? खारवेल के शिलालेख की या षट् खण्डागम के पाठ की? यदि दिगम्बर आगमों की भाषा प्राचीन शौरसेनी है तो आगमों मे 'ण' क्यों? और यदि 'ण' का पाठ है तो वह शौरसेनी क्यो? और शौरसेनी व्याकरण के किस विशिष्ट सत्र के नियमसे? मथरा के प्राचीन अनेक शिलालेखो मे भी 'नमो अरहतानं का उल्लेख हैं। (शिलालेख सं. भाग २ पृ. १७. १८.) हम पुनः निवेदन कर दे कि यद्यपि हमें परंपरित प्राचीन प्राकृत आगमों की भाषा बधनमुक्त इष्ट है- 'सकल जगज्जन्तुना व्याकरणदिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचन व्यापारः प्रकृतिः। तत्र भवं सैव प्राकृतम्। तथापि हमें प्राकृत मे व्याकरण मान्यता वालो को इंगित करने हेतु उक्त प्रसंग दर्शाने पडे हैं। ताकि विज्ञजन भी सशोधको की स्वमान्य शौरसेनी की व्याकरणज्ञातीतता को सहज ही हृदयंगम कर सकें। इनके संशोधन पश्चाद्वर्ती व्याकरण से भी ठीक हैं क्या? खारवेल के शिलालेख किसी कथन मात्र से शौरसेनी नहीं हो जाते-उनकी भाषा तो अभी विवादस्थ हैं आदि। कई लोग हमसे कहते हैं-इस अर्थयुग में आप ज्ञान की बात क्यों करते हैं? जैसा चलता है, वैसा चलता रहे। काल का प्रभाव तो होता ही है। सो हमारा कहना है कि कभी तो किसी के भनक पडेगी कान। और नहीं तो हमारे दिवगत आचार्य तो जान ही रहे हैं।

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