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[ . ] तथा हिन्दी के सभी वरेण्य आचार्यों की मान्यता का समीक्षात्मक अध्ययन किया है।
षष्ठ अध्याय में मिलते-जुलते स्वरूप वाले अलङ्कारों के पारस्परिक भेद का शास्त्रीय विवेचन किया गया है। जब थोड़े-थोड़े भेद के आधार पर नवीन-नवीन अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की प्रवृत्ति बढ़ी, तब उनके स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए, उनके पारस्परिक भेद का विवेचन भी आवश्यक हो गया। आचार्यों ने प्रत्येक अलङ्कार के व्यावर्तक धर्म का निर्देश किसी-न-किसी रूप में किया है। उस सङ्कत-सूत्र का सहारा लेकर हमने अलङ्कारों के पारस्परिक भेद का विवेचन किया है।
सप्तम अध्याय में भाषा की दृष्टि से अलङ्कार के स्वरूप और कार्य पर विचार किया गया है। आचार्यों ने काव्य के शब्द और अर्थ की प्रभाव-वृद्धि की दृष्टि से ही अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया है; पर लोक-व्यवहार की भाषा में भी अलङ्कारों का कम महत्त्व नहीं। कहीं-कहीं आलङ्कारिक प्रयोग अर्थबोध के अनिवार्य साधक बन जाते हैं । अतः, भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अलङ्कार पर स्वतन्त्र अध्याय में विचार करने की आवश्यकता जान पड़ी।
अन्तिम अध्याय में मनोभाव के साथ अलङ्कार के सम्बन्ध का विवेचन किया गया है। प्रहर्षण, विषादन-जैसे कुछ अलङ्कार मनोभाव से प्रत्यक्षतः सम्बद्ध हैं; पर अधिकांश अलङ्कार शब्दार्थ से सम्बद्ध रहकर उनके माध्यम से परम्परया मनोभाव को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक उक्ति-भङ्गी मन पर'परम्परया ही सही-अलग-अलग रूप में प्रभाव डालती है। इस दृष्टि से हमने मनोभाव के सन्दर्भ में अलङ्कार के स्वरूप और कार्य पर विचार किया है ।
उपसंहार में सम्पूर्ण ग्रन्थ के विवेचन का सार प्रस्तुत किया गया है।
जिन विद्वानों की कृतियों से मुझे सहायता मिली है, उनका अभार मानता हूँ। पूज्य गुरु आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा के स्नेहसिक्त प्रोत्साहन तथा सत्परामर्शी से मैं सदा उपकृत होता रहा हूँ। पूज्य गुरु डॉ० शीतांशुशेखर बागची ने मुझे अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। विद्वद्वर डॉ० विद्यानिवास मिश्र से मुझे समय-समय पर बहुमूल्य सुझाव मिलते रहे हैं। इन गुरुजनों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। भाषाशास्त्र के मर्मज्ञ डॉ० अनन्त चौधरी तथा काव्यशास्त्र के सुधी समीक्षक डॉ. काशीनाथ मिश्र की प्रेरणा मेरे लिए अविस्मरणीय है। ग्रन्थ की रचना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रेरणा देने वाले अपने परिवार