Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ [ घ ] अनेक आचार्यों ने काव्योक्ति के सुन्दर प्रकार को दृष्टि में रखकर नये अलङ्कारों के स्वरूप की उद्भावना भी की है। अतः, अलङ्कार की संख्या वृद्धि के सम्बन्ध में भट्टतौत तथा अभिनव गुप्त की मान्यता किञ्चित् परिष्कार के साथ ही स्वीकार की जा सकती है। भरत के काल में अलङ्कारों की संख्या-परिमिति को देखकर अलङ्कार-धारणा को अविकसित मान बैठना भी आलोचक के दृष्टिसङ्कोच का ही परिचायक होगा। उनकी लक्षण-धारणा के सन्दर्भ में उनकी अलङ्कार-मीमांसा का औचित्य समझा जा सकता है। तृतीय अध्याय में हिन्दी-रीति-साहित्य में नवोद्भावित अलङ्कारों के स्रोत पर विचार किया गया है। इसमें रीति-आचार्यों की अलङ्कार-विषयक उद्भावना के सम्बन्ध में प्रचलित कई भ्रान्तियों का निराकरण कर निर्धान्त तथ्य की स्थापना का प्रयास किया गया है। चतुर्थ अध्याय में सभी स्वीकार्य अलङ्कारों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत तथा हिन्दी के अनेक आचार्यों ने अलङ्कारों के आश्रय के आधार पर शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत अलङ्कार-वर्गों में उनका विभाजन किया था। अर्थालङ्कारों का मूल-तत्त्वों के आधार पर भी वर्ग-विभाजन करने का प्रयास हुआ था; किन्तु उनके वर्गीकरण की सीमा यह थी कि उन्होंने अपने-अपने अलङ्कारों का ही वर्गीकरण किया था। यह अस्वाभाविक नहीं था। उन-उन आचार्यों के द्वारा स्वीकृत तथा वर्गीकृत अलङ्कारों के अतिरिक्त "भी कई अलङ्कार स्वीकार्य हैं। अतः, सभी स्वीकार्य अलङ्कारों के वर्गीकरण के लिए व्यापक आधार की आवश्यकता जान पड़ी। वर्गीकरण के जो युक्तिसङ्गत आधार विभिन्न आचार्यों ने प्रस्तुत किये थे, उन्हें समन्वित रूप में स्वीकार कर हमने अलङ्कारों को वर्गीकृत किया है, साथ ही उन वर्गों में नहीं आ पाने वाले अलङ्कारों के लिए नवीन वर्गों की भी कल्पना की है। हमारी मान्यता है कि अलङ्कार विशेष को वर्ग-विशेष में रखने का दुराग्रह स्वस्थ समीक्षा की दृष्टि नहीं। एक ही अलङ्कार विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न वर्गों में आ सकता है। हमने स्वीकृत वर्गों के अतिरिक्त एक 'प्रकीर्ण' वर्ग माना है, 'जिसके उपवर्गों में कई दृष्टियों से अलग-अलग प्रकृति वाले अलङ्कारों को रखा है। पञ्चम अध्याय में एक-एक अलङ्कार के स्वरूप-विकास का अध्ययन किया गया है। एक ही अलङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक आचार्यों ने अनेक प्रकार की धारणाएँ प्रकट की हैं। हमने प्रत्येक अलङ्कार के सम्बन्ध में संस्कृत

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 856