Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 14
________________ [ ग ] साथ क्रोचे आदि पाश्चात्य विचारकों की मान्यता का भी मूल्याङ्कन किया है। इस प्रकार अलङ्कार का स्वरूप, अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेदाभेद तथा अन्य काव्य-तत्त्वों से अलङ्कार का सापेक्ष महत्त्व प्रथम अध्याय का विवेच्य है। द्वितीय अध्याय में अलङ्कार-धारणा के विकास का अध्ययन किया गया है। काव्यशास्त्र की प्रथम उपलब्ध रचना 'नाट्यशास्त्र' में केवल चार अलङ्कारों का स्वरूप-विवेचन हुआ है। पीछे चलकर अलङ्कारों की संख्या में वृद्धि होती गयी। संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में ही लगभग दो सौ अलङ्कारों के नाम-रूप कल्पित हुए हैं। हिन्दी-रीति-साहित्य में भी लगभग बीस नूतन अभिधान वाले अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । बीच-बीच में अलङ्कारों की संख्या को परिमित करने का भी प्रयास होता रहा है। इस प्रकार लगभग सवा सौ अलङ्कार आज स्वीकृत हैं। अलङ्कार-धारणा के विकास को समझने के लिए, चार मूल अलङ्कारों से इतने अलङ्कारों के विकास के कारणों की परीक्षा आवश्यक है। अनेक आधुनिक विद्वानों ने यह मानकर सन्तोष कर लिया है कि भरत के समय अलङ्कार-धारणा अविकसित थी; पीछे चलकर उसमें क्रमिक विकास होता गया। इसके विपरीत अभिनव गुप्त के गुरु भट्ट तौत ने समग्र अलङ्कार-.. प्रपञ्च को बीज रूप में आचार्य भरत की अलङ्कार एवं लक्षण की धारणा में अन्तनिहित मान कर कहा था कि विभिन्न लक्षणों के योग से अलङ्कारों में वैचित्र्य आता है। अभिनव गुप्त ने इस मत का समर्थन किया और सभी सादृश्यमूलक अलङ्कारों को उपमा अलङ्कार का प्रपञ्च कहा। हमने अलङ्कारों के स्रोत पर विचार करते हुए भट्ट तौत तथा अभिनव गुप्त के कथन के औचित्य की परीक्षा की है। इस अध्ययन के क्रम में कई नये तथ्य सामने आये है । काव्य-लक्षणों ने अपना अस्तित्व विसर्जित कर अनेक अलङ्कारों को जन्म दिया है । लक्षण तथा अलङ्कार के योग से कुछ अलङ्कारों के स्वरूप बने हैं, एक लक्षण का अन्य लक्षण के साथ योग होने से भी कुछ नवीन अलङ्कार आविर्भूत हुए हैं। कुछ लक्षणों के नाम-रूप ही किञ्चित् परिवर्तन के साथ अलङ्कार के रूप में स्वीकृत हो गये हैं। इसके अतिरिक्त गुण आदि की धारणा ने भी नये अलङ्कारों की स्वरूप-कल्पना में योग दिया है। स्मृति, भ्रान्ति, सन्देह, वितर्क आदि की धारणा दर्शन की ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र से आयी और उसे काव्यालङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिया गया। दर्शन में विवेचित प्रमाणों को भी प्रमाणालङ्कार के रूप में स्वीकृति मिली। इस प्रकार विभिन्न स्रोतों से काव्यालङ्कार-धारणा का संवर्धन होता रहा है । समय-समय पर

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