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विषयानुक्रमणिका
गाथा संख्या विषय
११२३
अचित्त द्रव्य परिक्षेप तथा क्षेत्र परिक्षेप के
उदाहरण |
११२४
काल परिक्षेप नगर कौनसा ?
११२५
भाव परिक्षेप नगर कैसे ?
११२६
मास शब्द के छह निक्षेप ।
११२७- ११३० द्रव्य मास आदि भाव मास पर्यन्त मासों का
११३१
११३२
११३३
प्रव्रज्या कौन ग्रहण करता है ?
११३४,११३५ धर्म क्या ? कथन कौन करता है ? शिष्य द्वारा प्रश्न आचार्य का समाधान ।
११३६,११३७ भव्य रूपी कमल विकस्वर, अभव्य रूपी कुमुद अवयुद्ध नहीं।
धर्म और धर्मोपदेष्टा का व्युत्क्रम क्यों ? प्रश्न का समाधान |
धर्म सुनाने का क्रम । व्युत्क्रम से सुनाने पर प्रायश्चित |
११३८
११३९
स्वरूप |
जिनकल्पिक आदि श्रेणियों के मासकल्प संबंधी विधि में नानात्व |
जिनकल्पिक कल्प की द्वार गाथा ।
१९४०, ११४१ व्युत्क्रम से सुनाने के दोष
११४२
११४३
११६२
११६३
११६४
११६५
यति धर्म का उपयोगिता । प्रव्रजित व्यक्ति के लिए शिक्षा तथा उसके दो
प्रकार ।
१९४४ ११४८ शिष्य को गुरु के द्वारा शिक्षा की प्रेरणा । संयममार्ग के लिए शिक्षा के प्रयोजन की क्या आवश्यकता ? शिष्य के द्वारा जिज्ञासा आचार्य के द्वारा वृष्टान्तपूर्वक समाधान ।
१९४९-१०५३ गुरु की विद्यमानता में श्रुतग्रहण करने से क्या लाभ? विविध दृष्टान्तों के द्वारा ज्ञान क्रिया की सिद्धि का प्रतिपादन ।
११५४-११५९ श्रुत तीसरा चक्षु क्यों ? अनेक दृष्टान्तों से आचार्य द्वारा समाधान । ११६०,११६१ आगम अध्ययन क्यों करना चाहिए ?
श्रुत अध्ययन से अष्ट गुणों की प्राप्ति का निर्देश | भवसागर में परिभ्रमण का हेतु श्रुत साधना का
प्रतिपादन क्यों ? उसकी
अनभ्यास ।
आत्महित के परिज्ञान की आवश्यकता क्यों ? श्रुत का जिज्ञासु किन गुणों से समाहित होता है ?
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गाथा संख्या विषय
११६६-११७० भाव, संवर, संवेग, संयम मार्ग की निष्कम्पता, स्वाध्याय रूप तप की वृद्धि, तथा निर्जरा से फलित का निर्देश | परदेशकत्व के गुण |
११७१
११७२, ११७३ जिनकल्पिक का कालमान? उसका ज्ञान कैसे ? शिष्य का धूलीदृष्टान्त तथा चिक्खलदृष्टान्त के द्वारा प्रतिवाद |
११७४,११७५ परम्परा से आने वाले श्रुत की परिहानि कैसे ? आचार्य द्वारा उसका समाधान ।
११७६-११८० समवसरण की रचना कहां, कब, कैसे और कौन करते हैं? उसका वर्णन !
समवसरण रचना में भिन्न-भिन्न देवेन्द्रों की भूमिका |
११८२, १९८३ समवसरण में तीर्थकरों गणधरों के प्रवेश की विधि तथा उनके बैठने आदि की व्यवस्था। तीनों दिशाओं में देवकृत प्रतिरूपक। तीनों दिशाओं में तीर्थंकर के रूप की अनुकृति का वर्णन।
११८१
११८४
१९८५-१९८८ तीर्थंकर और गणधरों के पश्चात् अतिशायी मुनि, वैमानिक देवियां आदि के बैठने, खड़े रहने
११८९
११९०
११९१
११९२
४९
११९३
११९४
११९५
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का क्रम ।
समवसरण में विभिन्न देवों के पारस्परिक व्यवहार का वर्णन तथा ईर्ष्या, मत्सर भाव, भय, संत्रास यंत्रणा, विकथा आदि का अभाव।
समवसरण में तिर्यञ्च, यान- वाहन आदि की व्यवस्था का वर्णन |
तीर्थंकर की धर्मदेशना का प्रयोजन और उसका
प्रभाव ।
सामायिक के चार प्रकार । चार गतियों में कौन प्राणी कौनसी सामायिक ग्रहण करता है ? देवों में सम्यक्त्व प्रतिपत्ति का नियम । धर्मदेशना से पूर्व तीर्थंकर का तीर्थ को नमस्कार तथा धर्मदेशना का लाभ ।
तीर्थंकर द्वारा तीर्थ को प्रणाम करने का हेतु तथा तीर्थकर नामगोत्र कर्म के वेदन का उपाय। समवसरण को देखने की इच्छा से श्रमण के आने की मर्यादा तथा नहीं आने पर प्रायश्चित्त का विधान ।
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