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पहला उद्देशक
व्यवहार करता है तो वह सुखपूर्वक चिल्ला कर लोगों को इकट्ठा कर सकती है। २०९२.जाणंति तब्विह कुले, संबुद्धीए चरिज्ज अन्नोन्नं।
ओराल निच्च लोय, खुज्ज तवो आउल सहाया॥ वे वैसे कुलों को जानती हैं जहां उपद्रव संभव होता है, जानकर वे उसे पहले ही छोड़ देती हैं। वे परस्पर सम्मत होकर भिक्षाचर्या में पर्यटन करती है। जो रूपवती साध्वी हो, वह प्रतिदिन अपना लुंचन करे। उसके पीछे कुब्जा की स्थापना करे और उस साध्वी को तपस्या कराए और जनाकीर्ण स्थानों में अनेक साध्वियों के साथ उसे भिक्षा के लिए भेजे। २०९३.तिप्पभिइ अडतीओ, गिण्हतऽन्नन्नहिं चिमे तिन्नि।
संजम-दव्वविरुद्धं, देहविरुद्धं च जं दव्वं॥ तीन आदि के समूह में भिक्षा के लिए जाने पर ये तीन प्रकार के द्रव्य वे पृथक्-पृथक् पात्रों में ले सकती हैं-संयमविरुद्ध, द्रव्यविरुद्ध और देहविरुद्ध जो द्रव्य हो उसे। २०९४.पालंक-लट्टसागा, मुग्गकयं चाऽऽमगोरसुम्मीसं।
संसज्जती उ अचिरा, तं पि य नियमा दुदोसाय॥ महाराष्ट्र देश में प्रसिद्ध पालंकशाक, लट्टाशाक-कौसुंभ- शालनक-इनको परस्पर मिलाने से सूक्ष्मजंतु उत्पन्न हो जाते हैं। मुद्गकृत अथवा द्विदल का शाक कच्चे दूध के साथ मिलाने पर, उसमें शीघ्र की सूक्ष्म जंतु उत्पन्न हो जाते हैं। जन्तुओं से संसक्त होने पर नियमतः दो दोष होते हैंसंयमोपघात और आत्मोपघात। २०९५.दहि-तेल्लाई उभयं, पय-सोवीराउ होति उ विरुद्धा।
देहस्स विरुद्धं पुण, सी-उण्हाणं समाओगो॥ दही और तैल, दूध और कांजी-परस्पर मिलाने पर विरुद्ध होते हैं-यह द्रव्यविरुद्ध है। शीत और उष्ण द्रव्यों का परस्पर समायोग देहविरुद्ध होता है। इन द्रव्यों को पृथक-पृथक लेने पर संयमादि के उपघात के लिए नहीं होते। २०९६.नत्थि य मामागाई, माउग्गामो य तासिमब्भासे।
सी-उण्हगिण्हणाए, सारक्खण एक्कमेक्कस्स॥ वहां कोई मामक कुल-मेरे घर में प्रवेश न करें, ऐसा निषेध करने वाले कुल-नहीं है। मातृग्राम-स्त्रीवर्ग ही प्रायः भिक्षा देता है अतः साध्वियों के साथ उनका संबंध निकटता का होता है। तीन आदि साध्वियों का साथ में भिक्षाटन करने से शीत तथा उष्ण द्रव्य लेने में तथा उनका संरक्षण करने में परस्पर सहयोग हो जाता है।
२०९७.एगत्थ सीयमुसिणं, च एगहिं पाणगं च एगत्था।
दोसीणस्स अगहणे, चिराडणे होज्जिमे दोसा॥ एक पात्र में शीत अर्थात् पर्युषित भक्त लेती हैं और एक में उष्ण। एक पात्र में पानक ग्रहण करती हैं। अतः तीन साध्वियों का साथ घूमना उचित है। यदि दोषान्न का ग्रहण नहीं किया जाता है तो चिरकाल तक घूमते रहने से ये दोष होते हैं। २०९८.थी पुरिसो अ नपुंसो, वेदो तस्स उ इमे पगारा उ।
फुफुम-दवग्गिसरिसो, पुरदाहसमो, भवे तइओ। वेद तीन प्रकार का होता है-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। इन तीनों के क्रमशः ये प्रकार हैं-फुफुमाग्नितुल्य करीषाग्निसदृश, दवाग्निसदृश, पुरदाहसम-तीसरा होता है। (करीषाग्नि अन्तर् में धग धग जलती है, न स्पष्टरूप से जलती है और न बुझती है। चालित होने पर तत्काल उद्दीप्त हो जाती है-ऐसा होता है स्त्रीवेद। जैसे दवाग्नि इंधन के योग से जलती है, अन्यथा बुझ जाती हैऐसा होता है पुरुषवेद। जैसे नगरदाह सर्वत्र दीप्त होता है, वैसे ही नपुंसकवेद भी स्त्री या पुरुष सर्वत्र उद्दीस होता है।) २०९९.जह फुफुमा हसहसेइ
घट्टिया एवमेव थीवेदो। दिप्पइ अवि किढियाण वि,
आलिंगण-छे (छं) दणाईहिं॥ जैसे फुफुकाग्नि चालित होने पर हसहसेइ-दीप्त होती है, इसी प्रकार स्त्रीवेद भी आलिंगन, निमंत्रण आदि से दीस होता है। स्थविर स्त्री के भी वह दीप्त होता है तो तरुण स्त्री की तो बात ही क्या! २१००.न वओ इत्थ पमाणं, न तवस्सित्तं सुयं न परियाओ।
अवि खीणम्मि वि वेदे, थीलिंगं सव्वहा रक्खं॥ वेदोदय के लिए न अवस्था प्रमाण है, न तपस्या, न श्रुत और न संयमपर्याय। वेद के सर्वथा क्षीण हो जाने पर भी स्त्रीलिंग की सर्वथा रक्षा करनी चाहिए। (इसीलिए स्त्रीकेवली भी आर्यिका के प्रायोग्य प्रावरण आदि को धारण करती है।) २१०१.कामं तवस्सिणीओ, पहाणुव्वट्टणविकारविरयाओ।
तह वि य सुपाउआणं, अपेसणाणं चिमं होइ।। शिष्य पूछता है-आर्यिकाएं इतनी यतना क्यों करती है? आचार्य कहते हैं-यह अनुमत है कि तपस्विनी आर्यिकाएं स्नान, उर्द्धतन आदि नहीं करतीं और वे विकार से रहित होती हैं, फिर भी वे उचितरूप से आच्छादित रहती
१. माउग्गामो त्ति समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः। (वृ. पृ. ६०४)
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