Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ पहला उद्देशक - ३०७ स्तेन दो प्रकार के होते हैं-आक्रान्तिक और अनाक्रान्तिक। जो आक्रान्तिक होते हैं, वे निर्भय होते हैं। चोराधिपति के कहे जाने पर वस्त्रों को विश्वस्तरूप से साधुओं को दे देते हैं। जो अनाक्रान्तिक होते हैं वे साधुओं को पुनः देने के लिए लूटे हुए वस्त्र ले जाते हैं, परन्तु भय के कारण उन वस्त्रों को उपाश्रय के बाहर, प्रस्रवणभूमी में या उपाश्रय के मध्य में रखकर भाग जाते हैं। साधु जब उन वस्त्रों को देखते हैं तब यह यतना करनी चाहिए। ३०१२.गीयमगीया अविगीयपच्चयट्ठा करिति वीसुं तु। जइ संजई वि तहियं, विगिंचिया तासि वि तहेव॥ (यदि गच्छ में सभी गीतार्थ मुनि हों तो उन उपकरणों को अपने मौलिक उपकरणों के साथ मिलाकर अपनी रुचि के अनुसार उनका परिभोग करे।) यदि गच्छ में गीतार्थ और अगीतार्थ-दोनों प्रकार के मुनि हों तो गीतार्थ मुनि अगीतार्थ मुनियों के प्रत्यय के लिए हृताहृतिक उपकरण पृथक रखते हैं। यदि साध्वियों के वस्त्र भी अपहृत हो गए हों उनके उपकरण भी पृथक् कर देते हैं। ३०१३.जो वि य तेसिं उवही, अहागडऽप्पो य सपरिकम्मो य। तं पि य करिति वीसुं, मा अविगीयाइ भंडेज्जा। उन साधुओं का यथाकृत, अल्पपरिकर्मित और परिकर्मित जो उपधि है उसको भी पृथक् कर देते हैं। यह इसलिए कि अगीतार्थ मुनि परस्पर कलह न करें। ३०१४.पंतोवहिम्मि लुद्धो, आयरिए इच्छए विवादेउ। कयकरणे करणं वा, आगाढे किसो सयं भणइ। यदि चोराधिपति प्रान्त हो और वह उपकरणों में लुब्ध हो तो वह आचार्य को मारने की इच्छा करता है। उस स्थिति में कृतकरण मुनि उसको उपशांत करे। इस प्रकार की परिस्थिति आने पर, इस प्रकार के आगाढ़ कारण में जो कोई कृश मुनि है, वह स्वयं को आचार्य कहता है। ३०१५.को तुब्भं आयरितो, एवं परिपुच्छियम्मि अद्धाणे। जो कहयइ आयरियं, लग्गइ गुरुए चउम्मासे॥ प्रान्त चोराधिपति पूछता है तुम्हारे में कौन आचार्य है? इस प्रकार अध्वगत अवस्था में पूछे जाने पर जो मुनि आचार्य को बता देता है उसे चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त आता है। ३०१६.सत्थेणऽन्नेण गया, एहिंति व मग्गतो गुरू अम्हं। __ सथिल्लए व पुच्छह, हयं पलायं व साहिति॥ पूछे जाने पर साधु कहे हमारे गुरू दूसरे सार्थ के साथ आगे चले गए हैं अथवा पीछे से आ रहे हैं। यदि हमारी प्रतीति न हो सार्थ के पुरुषों को पूछ लें अथवा कहे हमारे आचार्य मारे गए हैं अथवा पलायन कर गए हैं। ३०१७.जो वा दुब्बलदेहो, जुंगियदेहो असब्भवको वा। गुरु किल एएसि अहं, न य मि पगब्भो गुरुगुणेहिं॥ ३०१८.वाहीण व अभिभूतो, खंज कुणी काणओ व हं जातो। मा मे बाहह सीसे, जं इच्छह तं कुणह मज्झं। अथवा जो मुनि दुर्बल शरीर वाला हो, विकलांग हो, जो असमंजसप्रलापी हों, वह चोराधिपति को कहता है-मैं इन मुनियों का गुरु हूं परंतु मैं गुरु के गुणों से परिपूर्ण नहीं हूं। मैं रोग से अभिभूत हूं, लंगड़ा और लूला हूं और काणा हूं। मैं ऐसा हो गया हूं। अतः मेरे शिष्यों को तुम बाधित मत करो। जो कुछ तुम करना चाहते हो वह मेरे साथ ही करो। ३०१९.इहरा वि मरिउमिच्छं, संतिं सिस्साण देह मं हणह। मयमारगत्तणमिणं, जं कीरइ मुंचह सुते मे॥ अन्यथा भी मैं मरना चाहता हूं। मुझे मार दो, परंतु मेरे शिष्यों को शांति प्रदान करो। मुझे मारने का तात्पर्य होगा मरे हुए को मारना। इसलिए मेरे शिष्यों को तुम छोड़ दो। ३०२०.एयं पिताव जाणह, रिसिवज्झा जह न सुंदरी होइ। इह य परत्थ य लोए, मुंचंतऽणुलोमिया एवं॥ और यह भी तुम जान लो कि ऋषिहत्या इहलोक और परलोक के लिए सुंदर परिणामवाली नहीं होती। इस प्रकार अनुकूल उपदेश देने पर वे तस्कर सभी को छोड़ देते हैं। ३०२१.धम्मकहा चुण्णेहि व, मंत निमित्तेण वा वि विज्जाए। नित्थारेइ बलेण व, अप्पाणं चेव गच्छं च॥ यदि इतने पर भी तस्कर मुक्त न करे तो धर्मकथा, चूर्णप्रयोग, मंत्र, निमित्तबल अथवा विद्या के द्वारा चोर. सेनापति को उपशांत करे। अथवा कोई शक्तिशाली मुनि अपनी शक्ति से सेनापति पर विजय प्राप्त कर स्वयं को तथा गच्छ को उबार ले। ३०२२.वीसज्जिया व तेणं, पंथं फिडिया व हिंडमाणा वा। गंतूण तेणपल्लिं, धम्मकहाईहिं पन्नवणा॥ उपरोक्त सामग्री के अभाव में चोर साधुओं के उपधि को लूटकर साधुओं को मुक्त कर देता है तब वे मुनि चोरपल्ली में जाकर उपधि की गवेषणा करें। मार्ग में किसी के पूछने पर कहे-हम मार्ग से भटक गए थे अथवा विहरण करते-करते यहां आए हैं। चोरपल्ली में धर्मकथा की प्रज्ञापना करे।। ३०२३.भद्दमभई अहिवं, नाउं भहे विसंति तं पल्लिं। फिडिया मु ति य पंथ, भणंति पुट्ठा कहिं पल्लिं॥ चोरपल्ली में जाने से पूर्व यह ज्ञात कर ले कि वहां का चोराधिपति भद्र है या प्रान्त। यदि भद्र हो तो उस पल्ली में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450