Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 386
________________ ३१६ =बृहत्कल्पभाष्यम् वह देवता आकंपित होने पर दिशा या पथ का निर्देश कर ३११४.इहरा वि मरति एसो, अम्हे खायामो सो वि तु भएण। देता है। कंदादि कज्जगहणे, इमा उ जतणा तहिं होति॥ ३१०९.सम्मट्टिी देवा, वेयावच्चं करेंति साहणं । यह मुनि बुभुक्षा से ऐसे ही मरने वाला है तो हम उसे गोकुलविउव्वणाए, आसास परंपरा सुद्धा ।। रज्जू के सहारे आकाश में लटका कर मार देंगे और फिर हम सम्यग्दृष्टि देवता साधुओं का वैयावृत्त्य करते हैं। वे कन्दादि खायेंगे। इन प्रयोजनों में कन्द आदि के भक्षण में यह गोकुल की विकुर्वणा करते हैं। गोकुल के आश्वासन से- यतना होती है। परंपरा से मुनि जनपद तक पहुंच जाते हैं। यह परंपरा भी ३११५.फासुग जोणिपरित्ते, एगट्ठिगऽबद्ध भिन्नऽभिण्णे अ। शुद्ध है। बद्धट्ठिए वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए।। ३११०.सावय-तेणपरद्धे, सत्थं फिडिया तओ जइ हविज्जा। प्रासुक परीत्तयोनिक, एकास्थिक, अबद्धास्थिक, भिन्न अंतिमवइगा विटिय, नियट्टणय गोउलं कहणा॥ विदारित अभिन्न-अविदारित। इसी प्रकार बद्धास्थिक तथा श्वापद या स्तेनों के आघात से सार्थ का पलायन हो जाने बहुबीज में भी भिन्न-भिन्न भंग होते हैं। वृत्ति में इन सबके ३२ पर यदि साधु भटक जाएं तो कायोत्सर्ग के द्वारा देवता को भंग बतलाए हैं। यह वृक्ष के नीचे पड़े प्रलंब के विषय में है। आकंपित करे, वह पथदर्शन करता है और वजिका की ३११६.एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए। विकुर्वणा कर साधुओं को जनपद तक पहुंचा देता है। अंतिम साहारणं सभावा, आदीए बहुगुणं जं च॥ व्रजिका में देवयोग से मुनि वहां विंटिका को भूल जाते है। इसी प्रकार वृक्ष के ऊपर प्रलंब आदि एकास्थिकपद तथा उसे लेने पुनः लौटते हैं, वहां गोकुल को नहीं देखने और बहुबीजपद के साथ भी बत्तीस भंग होते हैं। इनमें जो फिर आचार्य को गोकुल की बात बताते है। गुरु जान जाते हैं स्वभावतः साधारण द्रव्य है, शरीरोपष्टंभकारक है, वह कि गोकुल देवकृत थे। ग्रहण करे। वही बहुगुण-बहुत उपकारी हो सकता है। ३१११.भंडी-बहिलग-भरवाहिगेसु एसा तु वण्णिया जतणा। ३११७.तुवरे फले य पत्ते, रुक्ख-सिला-तुप्प-मद्दणादीसु। ओदरिय विवित्तेसु य, जयण इमा तत्थ णातव्वा॥ पासंदणे पवाते, आतवतत्ते वहे अवहे। भंडी, बहिलक, भारवाही-इन सार्थों के प्रति यह यतना अध्वगत मुनि को यदि कांजिक आदि प्रासुक पानक प्राप्त कही गई है। औदारिक और विविक्त अर्थात् कार्पटिक सार्थों न हो तो निम्न पानक-एक के अभाव में दूसरा और दूसरे के के प्रति यह यतना ज्ञातव्य है। अभाव में तीसरा-इस क्रम से ले सकता है। ३११२.ओदरिपत्थयणाऽसइ, (१) तुवर फल-हरीतकी आदि तथा तुवरपत्र-पलाशपत्र __ पत्थयणं तेसि कन्द-मूल-फला। आदि से परिणामित पानक। अग्गहणम्मि य रज्जू, (२) वृक्ष के कोटर में कटक फल या पत्र से परिणामित। वलिंति गहणं च जयणाए॥ (३) सिलाजित से भावित। औदारिक सार्थ के साथ जाने पर यदि उनके पास शंबल (४) तुप्प-मृत कलेवर, वशा, घृत से भावित। का अभाव होने पर वे कन्द-मूल-फल आदि खाते हैं और (५) मर्दन हाथी आदि से आक्रांत। साधुओं को भी वही आहार देते हैं। उसको ग्रहण न करने पर (६) प्रस्यंदन-निर्झर का पानक। वे साधुओं को डराने के लिए रज्जू को बंटते हैं, अतः यतना (७) प्रपातोदक। से उसे ग्रहण करते हैं। (८) आतप से तप्त। ३११३.कंदाइ अभुंजंते, अपरिणए सत्थिगाण कहयंति। (९) अवहमान-जो बहता नहीं है। पुच्छा वेधासे पुण, दुक्खिहरा खाइउं पुरतो॥ (१०) वहमान। अपरिणत शिष्य यदि कन्द आदि नहीं खाते हैं तो ये पानक क्रमशः लिए जा सकते हैं। वृषभ मुनि सार्थिकों से कहते हैं। वे सार्थिक रज्जू को बंटते ___३११८.ओमे एसणसोहिं, पजहति परितावितो दिगिंच्छाए। हैं। पूछने पर कहते हैं जो कंद आदि नहीं खाते, हम उनको अलभंते वि य मरणे, असमाही तित्थवोच्छेदो॥ इस रस्सी से बांधकर आकाश में लटकाएंगे। अन्यथा बुभुक्षा अवमौदरिका में भूख से परितापित होकर मुनि यदि से पीड़ित इस मुनि के सामने हमारा खाना दुष्कर है, एषणाशुद्धि को छोड़ देता है अथवा भक्तपान न मिलने पर कष्टप्रद है। मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। असमाधि में मरने पर दुर्गति होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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