Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 390
________________ ३२० = मुझे चिरकाल हो गया है। अतः अब मुझे उनसे अवश्य मिलना है। यदि मायापूर्वक गुरु की अनुज्ञा लेकर वहां गमन करता है तो उसे एक गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा संखडी के लिए ग्रामानुग्राम जाने पर भी गुरुमास प्रायश्चित्त है। ३१५२.गामाणुगामियं वा, रीयंता सोउ संखडिं तुरियं। छड्डेति व सति काले, गाम तेसिं पि दोसा उ॥ ग्रामानुग्राम विहरण करने वाले मुनि भी संखडी को सुनकर शीघ्रता से जाते हैं और भिक्षाकाल संप्रास होने पर भी मार्गगत ग्राम को छोड़ देते हैं तो उनके भी ये वक्ष्यमाण दोष होते हैं। ३१५३.गंतुमणा अन्नदिसिं, अन्नदिसि वयंति संखडिणिमित्तं। मूलग्गामे व अडं, पडिवसभं गच्छति तदट्ठा॥ ३१५४.एगाहि अणेगाहिं, दिया व रातो व गंतु पडिसिद्धं। आणादिणो य दोसा, विराहणा पंथि पत्ते य॥ भिक्षाचर्या के लिए अन्य दिशा में जाने का इच्छुक संखडी के निमित्त अन्य दिशा में जाता है अथवा भिक्षा के लिए मूलग्राम में घूमता हुआ प्रतिवृषभग्राम में संखडी के लिए जाता है, वह संखडी चाहे एक दिवसीय या अनेक दिवसीय हो, जिसमें रात या दिन में जाना भी प्रतिषिद्ध है, वहां जाने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अध्वगत या स्थानप्राप्स मुनियों के संयम तथा आत्मविषयक विराधना होती है। (वह आगे के श्लोकों में)। ३१५५.मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होति संजमाऽऽयाए। रीयादि संजमम्मि य, छक्काय अचक्खुविसयम्मि॥ संखडी में जाते हुए मुनियों को देखकर मिथ्यात्व की वृद्धि और उड्डाह तथा संयम और आत्मविराधना होती है। रात्री में वहां जाने पर ईर्यासमिति का शोधन नहीं होता, अंधकार के कारण षट्काय की विराधना होती है। यह संयमविराधना है। ३१५६.जीहादोसनियत्ता, वयंति लूहेहि तज्जिया भोज्जे। ___ थिरकरणं मिच्छत्ते, तप्पक्खियखोभणा चेव॥ लोग उड्डाह करते हुए कहते हैं-ये मुनि जिह्वादोष अर्थात् रसगृद्धि से रहित हैं, फिर भी रूक्ष भोजन से वर्जित होकर भोज्य संखडी में जा रहे हैं। इस प्रकार लोगों में मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है तथा जो मुनिपक्ष के श्रावक होते हैं। उनमें क्षोभ उत्पन्न होता है। ३१५७.वाले तेणे तह सावते य विसमे य खाणु कंटे य। अकम्हाभयं आतसमुत्थं, रत्तेमादी भवे दोसा॥ १.भुंगारेणणदत्ता, उदकेन न कल्पितेति भावः। (वृ. पृ. ८८६) =बृहत्कल्पभाष्यम् रात्री में जाने पर ये दोष होते हैं-व्याल-सर्प, स्तेन, श्वापद आदि का व्याघात तथा निम्नोन्नत मार्ग में स्खलित होना, स्थाणु या कांटों से बींध जाना, आत्मा से उत्पन्न अकस्मात् भय से भयभीत हो जाना आदि। ३१५८.वसहीए जे दोसा, परउत्थियतज्जणा य बिलधम्मो। आतोज्ज-गीतसहे, इत्थीसहे य सविकारे॥ वसति संबंधी जो दोष, परतीर्थिकों की तर्जना, बिलधर्म, आतोघशब्द और गीतशब्द तथा स्त्रियों के सविकारशब्द (व्याख्या आगे के श्लोकों में)। ३१५९.आहाकम्मियमादी, मंडवमादीसु होति अणुमण्णा। ___ रुक्खे अब्भावासे, उवरि दोसे परूवेस्सं॥ संखडीकर्ता श्रावक साधुओं के निमित्त मंडप आदि बना देता है। यह आधाकर्म होता है। इसमें रहने पर अनुमति दोष प्राप्त होता है। यदि मुनि वहां नहीं रहते हैं तो अन्य वसति के अभाव में वृक्षमूल या अभ्रावकाश खुले आकाश में रहते हैं। वहां रहने पर जो दोष प्राप्त होते हैं, उनकी प्ररूपणा आगे की जाएगी। ३१६०.इंदियमुंडे मा किंचि बेह मा णे डहेज्ज सावेणं । पेहा-सोयादीसु य, असंखडं हेउवादो य॥ संखडी में परतीर्थिक संन्यासी भी आते हैं। वे श्रमणों को वहां आये हुए देखकर उनकी तर्जना करते हुए कहते हैं-ये इन्द्रियमुंड हैं। इन्हें कुछ मत कहना, अन्यथा ये शाप देकर जला डालेंगे। तथा श्रमणों को प्रत्युपेक्षा करते हुए तथा शौचादि करते हुए देखकर परतीर्थिक उनका उपहास करते हैं। तब कलह हो सकता है। परतीर्थिक हेतुवाद-वाद की मार्गणा करते हैं। वाद न करने पर तिरस्कार करते हैं और करने पर कलह के लिए तैयार हो जाते हैं। ३१६१.भिंगारेण ण दिण्णा, ण य तुज्झं पेतिगी सभा एसा। अतिबहुओ ओवासो, गहितो णु तुए कलहो एवं॥ (सभा आदि का वह सामान्य स्थान जहां साधु और गृहस्थ पिंडीभूत होकर रहते हैं, उसे 'बिलधर्म' कहा जाता है। ऐसे स्थान में अधिक स्थान रोकने पर गृहस्थ साधुओं को कहते हैं यह स्थान आपको भंगार से नहीं मिला है।' यह पैतृकी-परंपरा से भी प्राप्त नहीं है। इस प्रकार कलह होता है। ३१६२.तत्थ य अतिंत णेतो, संविट्ठो वा छिवेज्ज इत्थीओ। इच्छमणिच्छे दोसा, भुत्तमभुत्ते य फासादी॥ उस स्थान से आते-जाते या बैठते समय कोई साधु के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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