Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 419
________________ दूसरा उद्देशक शैक्ष यदि मुनि को विकटपान करते हुए देख लेता है तो वह उड्डाह करता है अथवा वह विपरिणत हो जाता है। विकटपान करने वाला मुनि विकटभाजन को ग्रहण करते हुए या रखते हुए उस भाजन को तोड़ देता है, उसके छेद कर देता है अथवा उसके टुकड़े कर देता है ये सारी क्रियाएं हो सकती हैं। ३४११. आमं ति अब्भुवगए, भिक्ख वियाराइनिग्गयमिएसु । भाइ गुरू सागारिय, कहि मज्जं जाणणडाए ॥ विकटपूरित उपाश्रय में यदि शय्यातर रहने की अनुज्ञा देता है तब आचार्य अपने अगीतार्थ मुनियों के भिक्षा के लिए या विचारभूमी में निर्गत हो जाने पर, मद्य कहां है ? यह जानने के लिए आचार्य सागारिक से कहते हैं३४१२. गोडीणं पिट्टीणं, वंसीणं चेव फलसुराणं च । दि मए सन्निचया अन्ने देखे कुटुंबीणं ॥ दिट्ठ हमने अन्य देश में एक कौटुम्बिक के घर पर गौड़ीन-गुडनिष्पन्न मदिरा, पैष्टी-व्रीही आदि धान्य से निष्पन्न मदिरा, वांशी-वंशकरीर से निष्पन्न मदिरा, फलसुरा-फलों से निष्पन्न मदिरा आदि इन मदिराओं का संचय देखा है। ( इतना कहने मात्र से वह सामारिक आचार्य को कहता है - मेरे पास भी विविध मदिराओं का महान् संचय है। आप उसको भी देखें।) ३४१३. गहियम्मि वि जा जयणा, गेलने अधव तेण गंधेणं । सागारियादिगहणं, णेयव्वं लिंगभेयाई ॥ शैक्ष के द्वारा विकट पीने पर जो यतना करनी है उसका कथन करना चाहिए। ग्लान के लिए अथवा उस विकट के गंध से जो अध्युपपन्न हो गया हो, उसके लिए सागारिक से या श्रावक से विकट का ग्रहण करना चाहिए। यदि स्वलिंग से प्राप्त न हो तो लिंगभेद आदि कर उसे प्राप्त करना चाहिए। ३४१४. पीयं जया होज्जऽविगोविएणं, तत्थाऽऽणइत्ताण रसं छुभंति । भिन्ने उ गोणादिपए करेंति, तेसिं पवेसस्स उ संभवम्मि ।। यदि कोई अकोविद मंदबुद्धिवाला शैक्ष विकट पी लेता है तब गीतार्थ मुनि उस विकटभाजन में इक्षुरस आदि डालकर उसे पुनः भर देते हैं। यदि पात्र टूट-फूट जाता है तो वे मुनि उपाश्रय के प्रांगण में गाय-बैल आदि के प्रवेश करते हुए तथा बाहर जाते हुए के पैरों का चित्रांकन कर देते हैं। यदि वहां गाय-बैल आदि का प्रवेश संभव हो सकता हो तो Jain Education International ३४९ गृहस्वामी मान लेता है कि गाय आदि से ही विकटभाजन टूटा-फूटा है। ३४१५. बंधित्तु पीए जयणा ठवेंति, मुद्दा जहा चिद्वह अक्खुया से। ऊणम्मि दिद्रुम्मि भांति पुट्ठा, नूणं परिस्संदति भाणमेयं ॥ विकटभाजन से विकटमय पीकर उसको पुनः लाख से स्थगित कर देते हैं, जिससे कि भाजन की मुद्रा यथावत् रह सके। गृहस्वामी उस भाजन को अपूर्ण देखकर मुनियों से पूछता है। मुनि कहते हैं - यह भाजन झरता है। ३४१६. सव्वम्मि पीए अहवा बहुम्मि, संजोगपाढी व ठयंति अन्नं । अन्नं व मग्गित्तु छुहंति तत्था, कीयंकयं वा गिहिलिंगमाई ॥ सारा मद्य या बहुत सारा मद्य पी लेने पर 'संयोगपाठी' मुनि ( उस विकट की निष्पत्ति का ज्ञाता) दूसरी मदिरा निष्पन्न कर उसमें डाल देता है। यदि संयोगपाठी न हो तो दूसरा मद्य लाकर उसमें निक्षिप्त कर देते हैं। उसके प्राप्त न होने पर क्रीतकृत अथवा लिंग परिवर्तन अर्थात् गृहलिंग से प्राप्त कर उसकी पूर्ति करे । ३४१७.तब्भावियट्ठा व गिलाणए वा, पुराण सागारिय सावए वा । वीसंभणीआण कुलाणऽभावा, गिण्हंति रुवस्स विवज्जएणं ॥ कोई मुनि प्रारंभ से ही उस विकट से भावित रहा है और कोई ग्लान उस विकट के बिना स्वस्थ नहीं हो सकता तो उनके लिए पश्चात्कृत या सागारिक या श्रावक से अथवा विश्वसनीयकुलों से उस विकट को ग्रहण करना चाहिए। इन सबके अभाव में रूप का विपर्यय कर अर्थात् लिंग को छोड़कर विकट प्राप्त करना चाहिए। ३४१८. अच्चारं वा वि समिक्खिऊणं, स्वप्पं तओ घेत दलित तरस । अन्नं रसं वावि तहिं छुभंती, संगं च से तं हवयंति तत्तो ॥ यदि ग्लान अत्यंत आतुर है ऐसी समीक्षा कर शीघ्र ही प्रतिश्रयवर्ती विकटभाजन से विकट लेकर उस ग्लान को दे दे और फिर उस भाजन में अन्य रस लाकर प्रक्षिप्त कर दे। फिर वे मुनि ग्लान के लिए इस प्रकार के विकटप्रसंग का निवारण करते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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