Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 448
________________ ३७८ और्णिक कल्पों का उपभोग करना हो तो सौत्रिक के ऊपर उनको रखे। ३६७०.पंचण्हं वत्थाणं, परिवाडीगाए होइ गहणं तु। उप्परिवाडी गहणे, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ जंगिक आदि पांचों प्रकार के वस्त्रों का ग्रहण परिपाटी से करें। परिपाटी यह है-कासिक, और्णिक, वल्कज, पट्टज आदि। इस परिपाटी का उल्लंघन कर ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है-जैसे जघन्य उपधि को परिपाटी का उल्लंघन कर ग्रहण करने पर पांच रात-दिन, मध्यम का मासलघु और उत्कृष्ट का चतुर्लघु। ३६७१.अलंभऽहाडस्स उ अप्पकम्म, अलंभे तस्सावि उ जं सकम्म। एतं अकाउं चउरो उ मासा, भवंति वत्थे परिवाडिहीणे॥ यथाकृत वस्त्र वह है जिसमें छेदन, सीबन और संधान इनमें से किसी भी प्रकार का परिकर्म नहीं होता। यदि यथाकृत वस्त्र की प्राप्ति न हो तो अल्प परिकर्म वाला वस्त्र ले और यदि उसकी भी प्राप्ति न हो तो सकर्म अर्थात् बहुत परिकर्म वाला वस्त्र ग्रहण करे। यदि इस क्रम का उल्लंघन होता है तो प्रायश्चित्त है चार लघुमास। यथाकृत आदि के विपर्यास से वस्त्र ग्रहण करने पर उत्कृष्ट का चतुर्लघु, मध्यम का मासिक और जघन्य का पंचक। यह परिपाटीहीन ग्रहण का प्रायश्चित्त है। प्राघूणक ३६७२.अद्धाणमाईसु उ कारणेसुं, कज्जा अलंभम्मि उ उक्कम पि। गेलन्नमादीसु विवज्जयं वा, असतीय कुज्जा खलु खुम्मियस्स। मुनि बहुत लंबे मार्ग से चल रहे हैं अथवा दूर से चलकर आए हैं आदि कारणों से वस्त्र का अलाभ होने पर वे उत्क्रम से भी वस्त्र ले सकते हैं। ग्लानत्व आदि कारणों में वस्त्रों के परिभोग में भी विपर्यास किया जा सकता है। क्षौमिक कल्प की अप्राप्ति होने पर अकेले और्णिककल्प का भी परिभोग किया जाता है। बृहत्कल्पभाष्यम् ३६७३.उदितो खलु उक्कोसो, उवही मज्झिममिदाणि वोच्छामि। संखा व एस सरिसी, पाउंछण सुत्तसंबंधो।। पूर्वसूत्र में उत्कृष्ट उपधि का कथन किया गया है। अब मध्यम उपधि-रजोहरण का कथन करूंगा। संख्या की दृष्टि से दोनों-वस्त्र और रजोहरण (पादप्रोञ्छन) समान हैं। यह पूर्वसूत्र का प्रस्तुत सूत्र के साथ संबंध है। ३६७४.अभिंतरं च बज्झं, हरति रयं तेण होइ रयहरणं। तं उण्णि उट्टि सणयं, वच्चयचिप्पं च मुंजं च॥ आभ्यन्तर और बाह्य रजों का हरण करता है इसलिए इसे रजोहरण कहा जाता है। वह पांच प्रकार का है-और्णिक, औष्ट्रिक, शनक, वच्चकचिप्पग और मुंजचिप्पक। ३६७५.वच्चक मुंजं कत्तंति चिप्पिउं तेहि वूयए गोणी। पाउरणऽत्थुरणाणि य, करेति देसि समासज्ज॥ वच्च (दर्भाकार तृणविशेष) और मूंज-पहले इनको कूट कर, फिर काता जाता है। उस वर्चक सूत से तथा मूंज सूत से बोरा बनाया जाता है। कई देश विशेष में इनसे प्रावरण और आस्तरण भी बनाए जाते हैं। उनसे निष्पन्न रजोहरण वच्चकचिप्पक और मूंजचिप्पक कहा जाता है। ३६७६.रयहरणपंचगस्सा, परिवाडीयाए होति गहणं तु। उप्परिवाडी गहणे, आवज्जति मासियं लहुअं॥ रजोहरण पंचक का ग्रहण परिपाटी से होता है। परिपाटी के विपरीत ग्रहण करने पर लघु मासिक प्रायश्चित्त आता है। ३६७७.तिविहोन्निय असतीए, उट्टियमादीण गहण धरणं तु। उप्परिवाडी गहणे, तत्थ वि सट्ठाणपच्छेत्तं। यथाकृत आदि के भेद से तीन प्रकार के और्णिक रजोहरण हो उनको पहले ग्रहण करना चाहिए। यदि और्णिक न मिले तो औष्ट्रिक आदि चारों प्रकार के रजोहरणों का यथाक्रम ग्रहण करे। परिपाटी का उल्लंघन कर ग्रहण करने पर स्वस्थान प्रायश्चित्त अर्थात् मध्यम उपधि का प्रायश्चित्त लघुमास प्राप्त होता है। ३६७८.उट्ट-सणा कुच्छंती, उल्ला इयरेसु महवं णत्थि। . तेणोणियं पसत्थं, असतीय उ उक्कम कुज्जा॥ औष्ट्रिक और शनज-दोनों प्रकार के रजोहरण वर्षाकाल में आर्द्रता के कारण कुथित हो जाते हैं। वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक रजोहरण मृदु नहीं होते। इसलिए और्णिक रजोहरण प्रशस्त है। उसकी प्राप्ति न होने पर उत्क्रम से भी ग्रहण किया जा सकता है। द्वितीय उद्देशक समाप्त रयहरण-पदं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-'उण्णिए उट्टिए' साणए वच्चापिच्चिए मुंजापिच्चिए नाम पंचमे॥ -त्ति बेमि॥ (सूत्र २९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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