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जैन परंपरा में मुख्यरूप से चार भाष्य प्रचलित हैं- दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ इनका निर्यूहण पूर्वो से हुआ, इसलिए इनका बहुत महत्त्व है। इनके निर्यूहणकर्त्ता भद्रबाहु 'प्रथम' माने जाते हैं। 'बृहत्कल्पभाष्य के प्रणयिता संघदास-गणी हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के टीकाकार आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्ति हैं। मलयगिरि ने प्रारंभिक ६०६ गाथाओं की टीका लिखी। तत्पश्चात् क्षेमकीर्ति ने उसे आगे बढ़ाकर टीका संपन्न की।
शिष्य ने प्रश्न किया कि मूल आगमों के होते हुए छेदसूत्रों का क्या महत्त्व है? आचार्य कहते हैं-अंग, उपांग आदि मूलसूत्र हैं। वे मार्गदर्शक और प्रेरक हैं। परन्तु यदि साधु संयम में स्खलना करता है और वह अपनी स्खलना की शुद्धि करना चाहता है तो वे मूल आगम उसको दिशा-निर्देश नहीं दे सकते। दिशा-निर्देश और स्खलना की विशुद्धि छेदसूत्रों द्वारा ही हो सकती है वे प्रायश्वितसूत्र हैं और प्रत्येक स्खलना की विशोधि के लिए साधक को प्रायश्चित्त देकर स्खलना का परिमार्जन और विशोधि कर साधक को शुद्ध कर देते हैं, इसीलिए उनका महत्त्व है।
भाष्यों की वाचना के विषय में कहा जाता है कि हर किसी को, हर किसी वेला में इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए ये रहस्य सूत्र है। सामान्य आगमों से इनकी विषयवस्तु भिन्न है। इनमें उत्सर्ग और अपवाद-विषयक अनेक स्थल हैं। हर कोई उन स्थलों को पढ़कर या सुनकर पचा नहीं सकता और तब वह निर्ग्रन्थ प्रवचन से विमुख होकर स्वयं भ्रांत होकर, अनेक व्यक्तियों को भ्रांत कर देता है, इसीलिए इनकी वाचना के विषय में पात्र-अपात्र का निर्णय करना बहुत आवश्यक हो जाता है। गृहस्थों को तो इनकी याचना देनी ही नहीं है, साधुओं में सभी साधु इनकी वाचना देने योग्य नहीं होते।
सम्पादकीय से
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