Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 440
________________ ३७० =बृहत्कल्पभाष्यम् १७म, है। तथा आज्ञा आदि दोष और संयम तथा आत्मविराधना ६.जब तक वह भुक्त भोजन जीर्ण नहीं हो तब तक। होती है। आचार्य कहते हैं-ये सारे अनादेश हैं। सिद्धान्तपक्ष यह ३६०४.सयमेव उ करणम्मी, उदगप्फुस भंडणुण्हवण पंते। है-जब तक वह संयत इस क्रिया की आलोचना-प्रतिक्रमण तेणा चारभडा वा, कम्मबंधे पसज्जणया॥ नहीं करता, तब तक कर्मबंध होता रहता है। स्वयं करने में ये दोष होते हैं-संयत ने हमारे भाजनों का ३६०७.णिच्छंति व मरुगादी, ओभावण जं च अंतरायं तु। स्पर्श किया है, यह सोचकर उनका उदक से प्रक्षालन करते कुज्जा व पच्छकम्मं, पवत्तणं घाय बंधं वा॥ हैं, भंडन-कलह भी हो जाता है, उण्हवण-उन भाजनों को यह भोजन संयत द्वारा स्पृष्ट है, यह सोचकर अग्नि में शुद्ध किया जाता है-ये प्रान्त संखडीकारी व्यक्ति मरुक ब्राह्मण आदि उसे लेना नहीं चाहते। यह मुनियों का करते हैं। स्तेन और चारभट-राजपुरुष संयतसंसृष्ट पिंड का अपमान है और उस पिंड को न खाने वाले ब्राह्मणों आदि के अपहरण कर ले जाते हैं। कर्मबंध की प्रसज्जना होती है। वह अंतराय होता है। गृहस्थ उनके लिए पश्चात्कर्म करता है। संयत पुनः ऐसा नहीं करता। भद्रक श्रावक उस अन्न को पवित्र समझकर अपने घर ले ३६०५.भिंदेज्ज भाणं दवियं व उज्झे, जाते हैं और जो प्रान्त होते हैं वे संयतों का घात या बंधन डज्झेज्ज उण्हेण कडी व भुज्जे।। करते हैं। संसत्तगं तं व जहिं व छुब्भे, ३६०८.कारावणमण्णेहिं, अणुमोदण उम्हमादिणो दोसा। विरोहि दव्वं व जहिं व छड्डे॥ दुविहे वतिक्कमम्मि, पायच्छित्तं भवे तिविहं।। संयत सागारिक पिंड को अन्यत्र डालता हुआ भाजन का मुनि संसृष्ट करने में असमर्थ होने पर दूसरों से कराते हैं भेद कर डालता है अथवा भाजन में जो द्रव्य है उसका या संसृष्ट करने वालों का अनुमोदन करते हैं। इसमें उष्मा परित्याग करता है अथवा वह द्रव्य अतीव उष्ण होने के आदि दोष होते हैं। दो प्रकार के व्यतिक्रम-लौकिक और कारण वह संयत उससे जल जाए, कटी वक्र हो जाए। जहां लोकोत्तरिक-में तीन प्रकार का प्रायश्चित्त है-करना, वह सागारिकपिंड का प्रक्षेप करता है, वह द्रव्य जंतुसंसक्त करवाना और अनुमोदन करना। होने पर संयमविराधना होती है। अथवा वह द्रव्य विरोधी हो, ३६०९.लोउत्तरं च मेरं, अतिचरई लोइयं च मेलतो। उसे खाने पर अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं, यह अहवा सयं परेहि य, दुविहो तु वतिक्कमो होति॥ आत्मविराधना है। जहां उस द्रव्य का निक्षेपण किया जाता है ३६१०.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि गुरुगा तवेण कालेण। वहां छहकाय विराधना संभव है। ___ बितियम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होति ततियम्मि। ३६०६.तं तेण छूढं तहिगं च पत्ता, लोकोत्तर मर्यादा यह है-असंसृष्ट को संसृष्ट करना नहीं तेणा भडा घोड कुकम्मिगा य। कल्पता। लौकिक मर्यादा यह है-भोजन को नहीं मिलाना आसत्त णामऽद्वित आउ मंसा, चाहिए। वह इस दोनों मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। ण जिण्णऽणादेस ण जा विउट्टे॥ अथवा स्वयं करना तथा दूसरों से करवाना-इस प्रकार दो उस संयत ने उस द्रव्य को भाजन में डाला और उसी प्रकार का व्यतिक्रम होता है। इनमें प्रथम स्थान में अर्थात् समय स्तेन, भट-राजपुरुष, घोट-पंचालचट्ट तथा कुकर्मी स्वयं करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त, तप और काल से भी वहां आ गए और उस भाजन का अपहरण कर ले गए। इस गुरु। दूसरे स्थान में अर्थात् दूसरों से करवाने पर वही विषयक कर्मबंध में ये मत-मतान्तर हैं प्रायश्चित्त है, तप गुरुकयुक्त। तीसरे स्थान में अर्थात् १. सातवें कुल के अनुवर्तन पर्यंत संयत के कर्मबंध होगा। अनुमोदन करने पर वही प्रायश्चित्त काल गुरुकयुक्त होता है। २. जब तक उनका नाम-गोत्र का अनुवर्तन होगा। ३६११.अम्हच्चयं छूढमिणं किमट्ठा, ३. जब तक उनकी अस्थियां रहेंगी। तं केण उत्ते कहिते जतीहिं। ४. जब तक वे जीवित रहेंगे। ते चेव तोयादि पवत्तणा य, ५. जब तक उस द्रव्य के अशन के परिणामस्वरूप असिह तेणे व असंखडादी। मांसोपचय होगा। कलह करने वाले कहते हैं-यह द्रव्य हमारा था इसको १. जो गृहस्थ जिस द्रव्य से संसृष्ट करता है, वह अत्यंत उष्ण होने के है, उस द्रव्य का स्वामी उससे कलह कर सकता है-तुमने मेरे द्रव्य कारण उसके हाथ तप्त हो जाते हैं। जो द्रव्य वह उसमें प्रक्षिप्त करता का स्पर्श क्यों किया? इत्यादि दोष होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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