Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 439
________________ दूसरा उद्देशक ३५९५. अगम्मगामी किलिबोऽहवाऽयं, बोट्टी व हुज्जा से सुणादिणा वा । तेण जहिं सगारो, पिंड ए तत्थ उ णाभिगच्छे ॥ यह अगम्यगामी क्लीव हो जाएगा अथवा वह बहिष्कृत होकर शुनक आदि की भांति उसका पिंड अस्पृश्य माना जाने लगेगा। इस प्रकार बहुत दोष होते हैं। जहां शय्यातर संखडी आदि में अपना पिंड ले जाता है वहां नहीं जाना चाहिए। दोसा बहू नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंड बहिया नीहडं असंस परिग्गाहित्तए । (सूत्र १५) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंड बहिया नीहडं संस पडिग्गाहित्तए ॥ (सूत्र १६) ३५९६. बहिया उ असंसट्टे, दोसा ते चेव मोत्तु संसद्वं । संसदृमणुण्णायं, पेच्छउ सागारितो मा वा ॥ शय्यातर के वाटक से बाहर निष्काशित संखडी पिंड लेने में वे ही दोष हैं जो पूर्वसूत्र में कहे गए हैं । संसृष्ट पिंड में वे दोष नहीं होते। इसीलिए वाटक से बाहर संसृष्टपिंड प्रस्तुत सूत्र में अनुज्ञात है। शय्यातर उसको देखे या न देखे । ३५९७. नीसट्टमसंसट्ठो, वि अपिंडो किमु परेहिं संसट्टो । अप्पत्तियपरिहारी, सगारदि परिहरति ॥ जो पिंड निसृष्ट होने पर भी असंसृष्ट है, वह शय्यातरपिंड नहीं होता, फिर वह अन्य भोजनों से ही संसृष्ट क्यों न हो? परन्तु अप्रीति का परिहार करने वाले होने के कारण सागारिकदृष्ट का भी परिहार करते हैं । ३५९८. अट्टिस्स उ गहणं, असती तव्वज्जितेण दिट्ठस्स । दिट्ठे व पत्थियाणं, गहणं अंतो व बाहिं वा ॥ सबसे पहले सागारिक के द्वारा अदृष्ट, फिर संस्तरण के अभाव में उस एक सागारिक को छोड़कर शेष कुटुम्ब द्वारा दृष्ट संसृष्टपिंड का ग्रहण अनुज्ञात है । साधु ग्रामान्तर के लिए प्रस्थित हों तो दृष्ट, संसृष्ट या असंसृष्ट अथवा वाटक के आभ्यन्तर या बहिर् - सर्वत्र ग्रहण अनुज्ञात है। Jain Education International ३६९ ३५९९. पाहुणगा वा बाहिं, घेत्तुमसंसगं च वच्वंति । अंतो वा उभयं पी, तत्थ पसंगादओ णत्थि ।। वहां प्राघूर्णक आए हैं। वे वाटक से बाहर निष्क्रामित पिंड, निसृष्ट या अनिसृष्ट लेकर (खाकर ) जाते हैं। वाटक के भीतर उभय अर्थात् प्राघूर्णक और साधु- दोनों पिंड ग्रहण करते हैं। वहां प्रसंग आदि दोष नहीं होते। (प्रसंग का अर्थ है - उनकी निश्रा से पुनः संखडी करवाना) । ३६००. जो उ महाजणपिंडेण मेलितो बाहि सागरियपिंडो । तस्स तहिं अपभुत्ता, ण होति दिट्ठे वि अचियत्तं ॥ ३६०१. जं पुण तेसिं चिय भायणेसु अविमिस्सियं भवे दव्वं । तं दिस्समाण गहियं, करेज्ज अप्पत्तियं पभुणो ॥ ३६०२. जं पुण तेण अदिट्ठे, दुघाण गहणं तु होतऽसंसट्टे । यं ताणि कधिज्जा, ण यावि ण य आयरो तत्थ ॥ जो सागारिक पिंड वाटक से बाहर महाजनपिंड के साथ मिश्रित हो गया, उसका ग्रहण कल्पता है। क्योंकि वहां सागारिक का अप्रभुत्व है, महाजन का ही प्रभुत्व है । सागारिक द्वारा देखे जाने पर भी उसमें अप्रीति नहीं होती । जो द्रव्य शय्यातर के मनुष्यों के भाजन में ही हो, वह अविमिश्रित होता है। उसको देखते हुए लेने पर शय्यातर के मन में अप्रीति पैदा हो सकती है, अतः उसे नहीं लेना चाहिए। शय्यातर द्वारा अदृष्ट होने पर दुघाण - 'दुर्भिक्ष' के समय असंस्तरण के कारण पिंड का ग्रहण करने पर, वे शय्यातर के मनुष्य जाकर शय्यातर को कहते हैं पर शय्यातर उस कथन को आदर नहीं देता। 'नो कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंड बहिया नीहडं असंसट्टं संस करेत्तए' जे खलु निग्गंथे वा निग्गंथी वा सागारियापिंड बहिया नीहडं असंसट्ठ संसद्वं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ, से दुहओ वि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ (सूत्र १७) ३६०३. संसस्स उ करणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाता । आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा - ऽऽदाए ॥ असंसृष्ट लेना नहीं कल्पता, यह सोचकर यदि संसृष्ट करता है तो चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त आता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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