Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 441
________________ दूसरा उद्देशक किसने और क्यों दूसरे द्रव्य में प्रक्षिप्त किया? इस प्रकार कहने पर रक्षपाल कहता है यतियों ने यह व्रज्य मिलाया है। इस पर पूर्वोक्त उदकस्पर्शन बर्तनों को धोना, भंडन आदि दोष होते हैं। जो भद्रक होते हैं वे उसे पवित्र मानकर घर ले जाते हैं। लोगों को न कहने पर रक्षपाल के साथ ही कलह आदि करने लग जाते हैं। ३६१२.अद्बाणणिग्गयादी, पविसंता वा वि अहव ओमम्मि । अणुमोदन कारावण, पभुणिक्खंतस्स वा करणं ॥ अध्वनिर्गत विहार कर आए हुए अथवा अशिव क्षेत्र से आए हुए अथवा अध्व में प्रवेश करने के इच्छुक अथवा मौदर्य में संसृष्ट पिंड का अनुमोदन करते हुए या कराते हुए या प्रभु के निष्क्रमण करने पर स्वयं भी संसृष्टपिंड कर सकते हैं। ३६१३. पुराण सामं व महत्तरं वा, अण्णं व माहेति तहिं च छोड़। सागारिओ वा वि विगोवितो जो, स पिंडमण्णेस तु संदधाति ॥ संसृष्ट किससे कराए ? पहले पश्चात्कृत से, उसके अभाव में श्रावक से, पश्चात् महत्तर से अथवा अन्य जो प्रमाणभूत हो उससे अन्यपिंडों में सामारिक पिंड को मिलाने के लिए प्रज्ञापना करते हैं। अथवा जो शय्यातर विकोविद है वह स्वयं ही अन्यपिंडों में स्वयं के पिंड को मिला देता है। ३६१४. सम्मिस्सियं वा वि अमिस्सियं वा, गिण्हंति गीता इतरेहिं मिस्सं । कारेंतऽदिट्टं चऽविगोवितेसू, दिहं च तप्पच्ययकारि गीता ॥ यदि गच्छ में सभी गीतार्थ हों तो वे सम्मिश्रित या अमिश्रित सागारिक पिंड ग्रहण करते हैं। यदि गच्छ अगीतार्थ मुनियों से युक्त होता है तो मिश्र - संसृष्ट लेते हैं, असंसृष्ट नहीं। अकोविद अगीतार्थ संत न देखे इस प्रकार वे संसृष्ट कराते हैं उनमें प्रत्यय होता है तब प्रत्ययकारी गीतार्थं उनके देखते हुए संसृष्ट कराते हैं। ३६१५. जो उज्जिओ आसि पभू व पुव्वं, तप्पक्खिओ राय-गणच्चिओ वा । सवीरिओ पक्खिवती इमं तु. वोनूण किं अच्छइ एस वीसुं। पहले इस गांव का अधिपति ऊर्जित-शक्तिशाली था। वह तत्पाक्षिक गांव का हितैषी तथा राजगणांचित - राजसम्मत था। ऐसा शक्तिशाली वह सागारिकपिंड को अन्यपिंड में Jain Education International ३७१ प्रक्षिप्त कर देता है, यह वचन कहकर कि यह पिंड पृथक क्यों पड़ा है। सागारियस्स आहडिया सागारिएण पडिम्गाहिया, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए । (सूत्र १८) सागारियस्स आहडिया सागारिएण अपडिम्गाहिया, तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिम्गाहित्तए । (सूत्र १९) ३६१६. नीहडसागरिपिंडस्स विवक्खो आहडो अह उ जोगो । नीडसुत्ते पुणरवि, जोगो संदओ नाम ॥ पूर्वसूत्र में निर्हृतसागारिक पिंड के विषय में कहा गया था प्रस्तुत सूत्र में उसके विपक्ष आहत का प्रतिपादन है। यह प्रस्तुत सूत्र के साथ योग है तथा इस सूत्र के पश्चात् पुनः निईतसूत्र होगा। यह सन्वष्टक योग है अर्थात् आदि में निर्हृतसूत्र, मध्य में आहृतसूत्र और अन्त में पुनः निर्हृतसूत्र । ३६१७. आइडिया उ अभिघरा, कुलपुत्तग भगिणि मट्टिगालिते। दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होह आहडिया || आहृतिका का अर्थ है-अभिघर अर्थात् दूसरे के गृह से प्राप्त होने वाला विशेष खाद्यद्रव्य । एक कुलपुत्र ने उसी गांव में ब्याही हुई अपनी बहन के लिए कुछ मिठाई भेजी। बहन उस समय मृत्तिका का लेप कर रही थी। उसके हाथ मृत्तिका से लिप्त थे। उसने मिठाई एक ओर रखवा दी। इस आहृतिका के चार प्रकार हैं- द्रव्याहतिका क्षेत्राद्वतिका, कालाहतिका और भावाहृतिका । · ३६१८. आएस विसेसे, सति काले भगिणि संभरित्ताणं । भज्जिं भज्जाहत्थे, कुलओ पेसेति भगिणीए ॥ कुलपुत्र ने प्राचूर्णक के लिए विशेष खाद्यद्रव्य बनाए । भोजन के समय अपनी बहन की स्मृति होने पर उसने अपनी भार्या के हाथ से भर्जिका प्रहेणक अपनी बहिन के निमित्त भेजा। यह आहृतिका है। (इसके चार विकल्प होते हैं १. द्रव्यतः स्वीकृत भावतः नहीं। २. भावतः स्वीकृत द्रव्यतः नहीं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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