Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 445
________________ दूसरा उद्देशक सागारियस्स अंसियाओ विभत्ताओ वोच्छिन्नाओ वोगडाओ निज्जूढाओ, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्त ॥ (सूत्र २३) ३६४३. छिन्नममत्तो कप्पति, पत्तेगं वा भणितो, इयाणि साहारणं भणिमो ॥ यदि सागारिक ने अपने ममत्व को मिटा दिया है तो उसका अंशिकापिंड लेना कल्पता है और यदि ममत्व को नहीं हटाया है तो वह नहीं कल्पता । यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का योग-संबंध है। पहले प्रत्येक-एक-एक सागारिक के पिंड के विषय में कहा गया है। अब सागारिक तथा साधारण पिंड के विषय में विधि बतलाई जा रही है। ३६४४. सागारियस्स अंसिय, अविभत्ता खेत्त जंत-भोज्जेसु । स्वीरे मालाकारे, सगारवि परिहरति ॥ सागारिक- शय्यातर के क्षेत्र, यंत्र, भोज्य, क्षीर, मालाकार संबंधी जो अंशिका है, इनमें हिस्सा है, वह जब तक अविभक्त है, उसे लेना नहीं कल्पता । सागारिक द्वारा दृष्ट का सर्वत्र परिहार किया जाता है। ३६४५. अंसो ति व भागो ति व एगट्ठा पुंज एव अविभत्ता । कतभागो वि ण सव्वो, वोच्छिज्जति सा अवोच्छिण्णा ॥ अंश और भाग- ये दोनों एकार्थक हैं। सागारिक का भोजन जो पुंजरूप में है, अविभक्त है, वह अविभक्त अंशिका है। भाग कर देने पर भी मूलराशि का सारा व्यवच्छेद नहीं होता, वह अव्यवच्छिन्न अंशिका है। अच्छिण्णो ण कप्पती अह तु जोगो । ३६४६. अव्वोगडा उ तुज्झं, ममं तु वा जा ण ताव णिद्दिसति । तत्थेव अच्छमाणी, होति अणिज्जूहिया अंसी ॥ सभी के भाग स्थापित कर दिए परन्तु जब तक यह निर्दिष्ट नहीं होता कि यह तुम्हारा है और यह मेरा, तब तक उसे अव्याकृत कहा जाता है। निर्दिष्ट कर देने पर भी वहां से अन्यत्र नहीं ले जाया जाता तब वह अनिगूढा अंशिका कहलाती है। ३६४७. सीताइ जनो पहुगादिगा वा, Jain Education International - साली - फलादीण व णिक्कयम्मि, जे कप्पणिज्जा जतिणो भवंति । पडेज्ज तेल्लं लवणं गुलो वा ॥ ३७५ शय्यातर तथा अन्य व्यक्तियों का सम्मिलित एक खेत है। क्षेत्रपूजा के समय शाली आदि पकाए जाते हैं अथवा मुनियों के लिए वहां कल्पनीय पृथक् - चिउडा आदि होते हैं, खेत में शाली, फल आदि होते हैं। उनको बेचने पर तैल, लवण, गुड़ आदि खरीदे जाते हैं यह सारी क्षेत्रविषयक सागारिक की अंशिका है। ३६४८. जंते रसो गुलो वा तेल्लं चक्कम्मि तेसु वा जं तु । विक्रेज्नते पडितं पवत्तणंते य पमयं वा ॥ शय्यातर तथा अन्य व्यक्तियों का सम्मिलित इक्षुयंत्र तथा तिलयंत्र है। इक्षुयंत्र में रस या गुड़ होता है। तिलयंत्र को चक्र कहा जाता है उसमें तिल आदि का तैल होता है। उनके विक्रय से तन्दुल, घृत, वस्त्र आदि लिए जाते हैं। यह यंत्रविषयक अंशिका है। ३६४९. गण-गोडिमादि भोज्जा, भुत्तव्यरियं व तत्थ जं किंचि भाउगमादीण पओ, अविभत्तं जं व गोवेणं ॥ गण, गोष्ठी - जिसमें महत्तर आदि पांच विशिष्ट व्यक्ति होते हैं उनके लिए अथवा अन्य महाजनों के लिए जो भोज्य होते हैं, वह भोज्यविषयक अंशिका है। सागारिक के भाई, भतीजे का दूध जो सागारिक के साथ अविभक्त है अथवा गोपाल के साथ वाला दूध जो अविभक्त है वह क्षीर विषयक अंशिका है। ३६५०. पुप्फपणिएण आरामिगाण पडियं ण जाव उ विरिक्कं । पक्खेवगादि समुहं अधियत्तादी य पुब्बुत्ता ॥ फूलों के विक्रय से मालाकार घी आदि खरीदता है वह अभी तक सागारिक के साथ विभक्त नहीं हुआ है। यदि सागारिक के सम्मुख उसमें से भक्त आदि लिया जाता है तो भद्रककृत प्रक्षेपक आदि दोष होते हैं और प्रान्तकृत पूर्वोक्त दोष होते हैं। ३६५१. अहवा विमालकारस्स अंसियं अवणयंति भुज्जेसु । सो य सगारो तेसिं, तं पि ण इच्छंति अविभत्तं ॥ अथवा भोज आदि में मालाकार की अंशिका को पहले ही निकाल कर अलग रख देते हैं। वह मालाकार उन साधुओं का शय्यातर है तो साधु अविभक्त मालाकार की अंशिका को लेना नहीं चाहते। ३६५२. गेलण्णमाईसु उ कारणेसू, माऽदिप्पसंगो ण य सव्वे गीता । गिण्हंति पुंजा अविरेडियातो, तस्सऽण्णतो वा वि विरेडियाओ। अपवादपद में ग्लानत्व, अवमौदर्य आदि कारणों में सर्वप्रथम शय्यातरपिंड लेने में अतिप्रसंग न हो तथा सभी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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