Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 443
________________ दूसरा उद्देशक ३७३ ३६२७.सुत्तं पमाणं जति इच्छितं ते, अर्थावबोध करा देता है। अतः अर्थ पर अवलंबित सूत्र ही ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती। प्रमाण होता है।) अत्थो जहा पस्सति भूतमत्थं, ३६३१.अप्पस्सुया जे अविकोविता वा, तं सुत्तकारीहिं तहा णिबद्धं॥ . ते मोहइत्ता इमिणा सुएण। यदि तुम सूत्र को प्रमाणरूप में मानते हो तो सोचो कि तेसिं पगासो वि तमंतमेति सूत्र अर्थ का अतिरेक नहीं करता। अर्थ जैसे अभिधेय को निसाविहंगेसु व सूरपादा॥ देखता है, सूत्रकर्ताओं ने उसी अभिप्राय से सूत्र की संरचना जो अल्पश्रुत और अकोविद-अगीतार्थ हैं, उनको इस की है। सूत्र ने मोह लिया है। इसके आधार पर वे सागारिक ३६२८.छाया जहा छायवतो णिबद्धा, का आहृतिकापिंड ग्रहण करते हैं। उनका यह प्रकाश भी संपत्थिए जाति ठिते य ठाति। प्रबल अंधकार में परिणत होता है। जैसे निशाचारी पक्षियों अत्थो तहा गच्छति पज्जवेसू, (उल्लू आदि) के लिए सूर्य की किरणें भी अंधकारमयी सुत्तं पि अत्थाणुचरं तहेव॥ होती हैं। छायावान् पुरुष की जैसे छाया निबद्ध है-परतंत्र है, पुरुष ३६३२.अहभावविप्परिणए, अहिट्ठ सुयं तु तम्मि उ पउत्थे। के प्रस्थित होने पर वह चलती है, उसके बैठने पर वह भी नीहडियाए पुरओ, संछोभगमादिणो दोसा। स्थित हो जाती है, ठहर जाती है। इसी प्रकार अर्थ जिन-जिन यदि आहृतिका को ले जाने वाले का भाव स्वतः बदल पर्यायों में जाता है, सूत्र भी अर्थ का अनुचर होकर उन-उन जाता है तो उसे लेना कल्पता है। अथवा वह जिसके लिए पर्यायों को छूता है। आहृतिका ले जा रहा है, मार्ग में वह सुनता है कि वह व्यक्ति ३६२९.जं केणई इच्छइ पज्जवेण, ग्रामान्तर गया हुआ है, तब वह सोचता है उसके लिए क्यों अत्थो ण सेसेहि उ पज्जवेहि। ले जाऊं-इस प्रकार वह विपरिणत होने पर, सागारिक द्वारा विही व सुत्ते तहि वारणा वा, अदृष्ट होने पर वह ग्रहण किया जा सकता है। यह इस सूत्र उभयं व इच्छंति विकोवणट्ठा॥ का कथन है। वक्ष्यमाण सूत्र का कथन है कि निर्हतिका को जो सूत्र जिस अर्थ को जिस किसी पर्याय से ग्रहण करना सागारिक के देखते हुए लेने पर संछोभक-प्रक्षेपक आदि चाहता है वहां उसी को प्रमाण मानना चाहिए, शेष पर्यायों । दोष होते हैं। अतः सागारिक के समक्ष उसे नहीं लेना को नहीं। कहीं सूत्र में विधि का निरूपण है और कहीं सूत्र में चाहिए। वारणा का, प्रतिषेध का निरूपण है और कहीं-कहीं शिष्य ३६३३.नीयं पि मे ण घेच्छति, धम्मो व जतीण होति देंतस्स। की मति को बढ़ाने के लिए ही सूत्र में विधि-प्रतिषेध-दोनों वसणऽब्भुदओ वा सिं, भंडणकम्मे व अद्दण्णा॥ निबद्ध हैं। आहृतिका ले जाने वाला सोचता है मैं इसे ले जा रहा ३६३०.उस्सग्गओ नेव सुतं पमाणं, हूं, परंतु वह इसे स्वीकार नहीं करेगा अथवा यतियों को ण वाऽपमाणं कुसला वयंति। ऐसा द्रव्य देने से धर्म होता है अथवा जिनके पास ले जाया अंधो य पंगुं वहते स चावि, जा रहा है उनके कोई शोक हो गया है अथवा कोई कहेति दोण्हं पि हिताय पंथं॥ अभ्युदय-उत्सव आदि आ गया है अथवा कोई कलह हो तीर्थंकर या गणधर कहते हैं कि सामान्यतः सूत्र न रहा है अथवा वे कृषि आदि कर्म में व्याकुल हैं-अतः ये प्रमाण है और न अप्रमाण। (किन्तु जो सूत्र पूर्वापर विरुद्ध इसे स्वीकार नहीं करेंगे। नहीं है तथा पारंपरिक अर्थ से युक्त है, वह है प्रमाण, अन्यथा ३६३४.इति भावम्मि णियत्ते, तेहि अदिट्ठस्स कप्पती गहणं। अप्रमाण) जैसे अंधा व्यक्ति पंगु को अपने कंधों पर वहन कर छेत्तादिणिग्गतेसु व, कप्पति गहणं जहिं सुत्तं॥ चलता है। वह पंगु भी दोनों के हित के लिए मार्ग का कथन इस प्रकार भावना की निवृत्ति हो जाने पर, जिनके पास करता है, मार्ग दिखाता है। (इसी प्रकार अर्थ से वह आहृतिका ले जाई जा रही है उन शय्यातर मनुष्यों द्वारा अप्रतिबोधित सूत्र अंध सदृश है। जब वह पंगुस्थानीय अदृष्ट होने पर उसका ग्रहण कल्पता है। अथवा क्षेत्र आदि अर्थ को वहन करता है, तब वह अर्थ सूत्र की निश्रा से से निर्गत होने पर ग्रहण कल्पता है। यह सूत्र के अवतरण का चलता हुआ अपने गन्तव्य तक पहुंच जाता है, सम्यग् विषय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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