Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 437
________________ ३६७ दूसरा उद्देशक = ३५७८.उल्लोम लहू दिय णिसि, तेणेक्कहिं पिंडिए अणुण्णवणा। असहीणे जेहादि व, जइ व समाणा महतरं वा॥ विलोम से अनुज्ञापना करने पर मासलघु प्राप्त होता है। इसलिए उन पांचों का एकत्र मिलन पर पांचों की अनुज्ञा लेनी होती है। यदि पांचों का एकत्र मिलन न हो तो महत्तर आदि के घरों में जो ज्येष्ठ हो उसकी अनुज्ञा ले। जितने वहां हों उनकी अनुज्ञा ले। अथवा एक महत्तर की ही अनुज्ञा ली जा सकती है। ३५७९.बाहिं दोहणवाडग, दुद्ध-दही-सप्पि-तक्क-णवणीते। आसण्णम्मि ण कप्पति, पंच पए उप्परिं वोच्छं। किसी शय्यातर के गांव के बाहर दोहनवाड़ी है। वहां दूध, दही, घृत, तक्र और नवनीत-ये पांचों होते हैं। क्षेत्र के भीतर देने पर इनका ग्रहण नहीं कल्पता। ये पांचों द्रव्य क्षेत्र के बाहर होते हैं। इनके ग्रहण की विधि मैं आगे कहूंगा। ३५८०.निज्जतं मोत्तूणं, वारग भति दिवसए भवे गहणं। छिण्णं भतीय कप्पति, असती य घरम्मि सो चेव॥ गोकुल से जो दूध आदि शय्यातर के घर ले जाया जा रहा है वह शय्यातरपिंड होता है। उसको छोड़कर गोकुल में जो दूध आदि ग्रहण किया जाता है वह शय्यातरपिंड नहीं होता। जिस दिन गोपाल की बारी हो उस दिन वह शय्यातरपिंड नहीं होता, उसे ग्रहण किया जा सकता है। भृति (गोपाल को दिया जाने वाला दूध आदि का हिस्सा) विभक्त हो जाने पर उसे लेना कल्पता है। यदि शय्यातर घर में रहकर, पुत्र और पत्नी सहित वजिका आदि में चला जाए तो भी वही शय्यातर है। ३५८१.बाहिरखेत्ते छिण्णे, वारगदिवसे भतीय छिण्णे य। सो उण सागरिपिंडो, वज्जो पुण दिट्ठि भद्दादि। जो दूध आदि बहिरक्षेत्र में छिन्न-विभक्त किया है वह, गोपाल के बारी के दिन का तथा जो प्रति दिवस प्राप्त भृति से विभक्त दूध आदि-यह सारा सागारिक पिंड-शय्यातर पिंड नहीं होता, फिर भी शय्यातर के देखने पर भद्रक-प्रान्त दोष न हों, इसलिए उसका भी वर्जन करना चाहिए। ३५८२.एगं ठवे णिव्विसए, दोसा पुण भद्दए य पंते य। __णिस्साए वा छुभणं, विणास गरहं व पावंति॥ अनेक शय्यातर होने पर भी यदि निष्कारण एक शय्यातर की स्थापना कर, शेष शय्यातरों का भक्तपान लिया जाता है तो भद्रक-प्रान्तदोष होते हैं। भद्रक व्यक्ति स्थापित शय्यातर के घर पर भक्तपान निक्षिप्त कर देता है। जो प्रान्त होता है वह साधुओं का निष्काशन कर सकता है और तब वे साधु विनाश तथा गर्दा को प्राप्त होते हैं। ३५८३.सड्ढेहि वा वि भणिया, एग ठवेत्ताण णिव्विसे सेसे। गणदेउलमादीसु व, दुक्खं खु विवज्जिउं बहुगा॥ (उत्सर्ग पद में अनेक शय्यातरों में से एक को स्थापित करना नहीं कल्पता, परन्तु अपवादपद में वह किया जा सकता है)। यदि श्रावक यह कहें कि आप एक शय्यातर को स्थापित कर शेष के घरों में भक्तपान ग्रहण करें। इस प्रकार कहने पर एक की शय्यातररूप में स्थापना कर शेष घरों में भिक्षा ली जा सकती है। अथवा बहुजनसामान्य देवकुल, सभा आदि में स्थित मुनि एक को स्थापित कर शेष घरों में भिक्षाचर्या करे। अनेक घरों का वर्जन करना कष्टकर होता है। ३५८४.गिण्हंति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जह रुई तेसिं। पक्कण्णपरीमाणं, संतमसंतेयरे दव्वे॥ सभी शय्यातर अनुग्रहार्थी हों और उनकी रुचि बढ़ती जाए यह ध्यान में रखकर बारी-बारी से उनसे भिक्षा ग्रहण करे। वहां पके हुए अन्न का परिमाण अवश्य देखे और यह भी जाने कि वह द्रव्य उसके घर में विद्यमान था या नहीं? यदि पूर्वपरिमाण से सद्रव्य का उपस्कार करते हैं तो वह कल्पता है अन्यथा उसके ग्रहण की भजना है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया अनीहडं असंसद्वं वा संसद्वं वा पडिग्गाहित्तए॥ (सूत्र १४) ३५८५.अंतो नूण न कप्पइ, कप्पइ णिक्खामिओ हु मा एवं। पत्तेय विमिस्सं वा, पिंडं गेण्हेज्जऽतो सुत्तं॥ निश्चित ही घर के भीतर शय्यातरपिंड नहीं कल्पता, परंतु घर से बाहर निष्क्रामित होने पर वह कल्पता है, ऐसा सोचकर कोई प्रत्येक अर्थात् असंसृष्ट और विमिश्र अर्थात् संसृष्ट पिंड ग्रहण न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र की रचना है। ३५८६.वाडगदेउलियाए, इच्छा देतम्मि गहण तह चेव। णीसट्ठमणीसढे, गहणा-ऽगहणे इमे दोसा। शय्यातर के वाटक के मध्य में एक देवकुलिका है। वाटक वास्तव्य लोग संखडी करते हैं और भिक्षाचरों को देना चाहते हैं। उसका ग्रहण पूर्वसूत्र में कथित विधि से करना चाहिए। उसमें निसृष्ट-वानमंतरदेव को बली आदि दे दिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450