Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 436
________________ ३६६ बृहत्कल्पभाष्यम् बाहर का घर जहां वह ठहरा हुआ है, घरों में अव्यवच्छिन्न प्रकार देवकुल में, यज्ञ आदि में की जाने वाली संखडी तथा भक्तपान लाया जाता है वह नहीं कल्पता। शय्यातर शंबल लेकर काठ के निमित्त अटवी में जाते समय में उनमें से प्रस्थित होकर जा रहा है, तब सारा अर्थात् उस दिन लाया कुछ नहीं लेना चाहिए। हुआ या अन्य दिन लाया हुआ भक्त-पान नहीं कल्पता, ३५७३. मुत्तूण गेहं तु सपुत्त-दारो, फिर चाहे वह प्रासुक ही क्यों न हो। शय्यातर कंधे पर वाणिज्जमादी जति कारणेहि। सामान रखकर दूसरे गांव में बेचने ले जाता है, वह यदि सयं व अण्णं व वएज्ज देसं, उस वस्तुजात में से दूध-दही मुनियों को देता है, संखडी सेज्जातरो तत्थ स एव होति॥ बनाता है और उसमें से मुनियों को देता है, अथवा अटवी शय्यातर साधुओं को वसति की अनुज्ञा देकर अपने में जाते समय जो पाथेय साथ में हो, उसमें से मुनियों को पुत्र और भार्या को साथ ले व्यापार आदि कारण के निमित्त देता है-इन तीनों में ग्रहण करना नहीं कल्पता। यदि वह अपने या दूसरे के देश में जाता है, वहां भी वही शय्यातर शय्यातर सपुत्र-पशु-बांधव घर में न रहे तो देशान्तर में होता है। स्थित होने पर भी वही शय्यातर है। ३५७४.महतर अणुमहतरए, ललियासण कडुअ दंडपतिए य। ३५६९.निग्गमगाइ बहि ठिए, अंतो खेत्तस्स वज्जए सव्वं । एतेहिं परिग्गहिया, होति घडातो तदा काले॥ बाहिं तद्दिणणीए, सेसेसु पसंगदोसेण॥ महत्तर, अनुमहत्तर, ललितासनिक, कटुक और दंडपतिवणिक ने देशान्तर जाने के लिए घर से प्रस्थान किया। इन पांचों से परिगृहीत ही पूर्वकाल में घटाएं--गोष्ठियां गांव के बाहर ठहरा। यदि उसके ठहरने का स्थान क्षेत्र के होती थीं। भीतर हो तो शय्यातरपिंड के कारण सारा वर्ण्य है। यदि वह ३५७५.सव्वत्थ पुच्छणिज्जो, तु महतरो जेट्टमासण धुरे य। क्षेत्र से बाहर स्थित है तो उस दिन लाया हुआ पिंड तहियं तु असण्णिहिए, अणुमहतरतो धुरे ठाति॥ शय्यातरपिंड है, वह वयं है। शेष दिवस लाया हआ प्रसंग जो सर्वत्र प्रच्छनीय होता था, जिसका आसन दोष के आधार पर अग्राह्य है। बृहत्तर होता था, जो सबसे आगे बैठता था, वह है महत्तर। ३५७०.ठितो जया खेत्तबहिं सगारो, जो महत्तर की अनुपस्थिति में आगे बैठता है, वह है भत्तादियं तस्स दिणे दिणे य। अनुमहत्तर। अच्छिण्णमाणिज्जति णिज्जती य, ३५७६.भोयणमासणमिटुं, ललिए परिवेसिया दुगुणभागो। गिहा तदा होति तहिं वि वज्जे॥ ___कडुओ उ दंडकारी, दंडपती उग्गमे तं तु॥ शय्यातर क्षेत्र के बाहर स्थित है, उसके लिए प्रतिदिन जिसके मनोनुकूल भोजन और आसन किया जाता है, भक्त घर से बाहर लाया जाता है और बाहर से घर ले जाया । जिसके परोसनेवाली स्त्री होती है और जिसको इष्ट भोजन जाता है, वह सारा वहां रहने पर वर्जनीय होता है। दुगुना दिया जाता है, वह है ललितासनिक। अपराध पर दंड ३५७१.बाहिं ठिय पठियस्स उ, सयं व संपत्थिया उ गेण्हति। देने वाला है कटुक और जो उस दंड को क्रियान्वित करता है तत्थ उ भद्दगदोसा, ण होति ण य पंतदोसा उ॥ वह है दंडपति। शय्यातर क्षेत्र से बाहर स्थित होकर वहां से आगे ३५७७.उल्लोमाऽणुण्णवणा, अप्पभुदोसा य एक्कओ पढम। प्रस्थित हो जाता है तथा साधु भी स्वयं आगे जाने के लिए जेट्ठादिअणुण्णवणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं ।। प्रस्थित हो गए हों तो वे उस शय्यातर से प्रासुक भक्तपान जो मुनि महत्तर आदि के क्रम का उल्लंघन कर विपरीत ग्रहण कर सकते हैं। उस समय लेने पर भद्रक और प्रान्त क्रम से देवकुल-सभा आदि की अनुपालना करता है उसके दोष नहीं होते। मासलघु प्रायश्चित्त तथा अप्रभुदोष होते हैं, निष्काशन ३५७२.अंतो बहि कच्छउडियादि ववहरंते पसंगदोसा उ। आदि हो सकता है। अतः सभी एक साथ मिलते हों तो देउल-जण्णगमादी, कट्ठादऽडविं व वच्चंते॥ पहले उनकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। न मिलते हों तो ज्येष्ठ क्षेत्र के अभ्यन्तर या बाहर कक्षापुटिकादि लेकर कोई महत्तर के क्रम से अनुज्ञापना लेनी चाहिए। यदि महत्तर वणिक् अन्य गांवों में व्यापार के निमित्त जाता है और वह आदि कोई घर पर न मिले तो उनके प्राघूर्णक से अनुज्ञा ली साधुओं को दूध-दही आदि दिलाता है, उसका ग्रहण नहीं जा सकती है। इस विधि से उपाश्रय का ग्रहण ही करना चाहिए क्योंकि प्रसंग दोष की संभावना रहती है। इसी विधिग्रहण माना जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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