Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 429
________________ दूसरा उद्देशक = ३५९ है। गाय-बैल आदि निःशंक होकर आघात करते हैं। वहां युवा हैं, सविकार हैं और जो यहां रहते हैं वे सारे इस चिलिमिलिका बांधने पर चोर उसे उठा ले जाते हैं। ये दोष प्रतिश्रय में न आएं। इस प्रकार कहने पर यदि वह चाहता हो होते हैं। उसके अभाव में कट, किलिंच आदि बना कर और सबको निवारण करने में सशक्त हो तो वहां रहा जा स्थापित करने पर आधाकर्मनिष्पन्न प्रायश्चित्त तथा कट सकता है। आदि करने में जिन जीवों का घात हुआ है, तन्निष्पन्न पृथक ३५०७.भोइयकुले व गुत्ते, दुज्जणवज्जे वसंति उ पउत्थे। प्रायश्चित्त आता है। महतरगादिसुगुत्ते, वंसीमूलम्मि ठायंति॥ ३५०२.जाओ वणे वी य बहिं घरस्स, . भोजिक-नगरस्वामी का गृह जो गुप्त हो, दुर्जनजनरहित अलिंदओ वा अवसारिगा वा। ___हो, वहां रहा जा सकता है। यदि भोजिक देशान्तर गया हो गेहस्स पासे पुर पिट्ठओ वा, तो महत्तर आदि के गृह जो सुरक्षित हों तो वैसे वंशीमूल गृह तं वंसिमूलं कुसला वदंति॥ में रहा जा सकता है। जो गृह के पार्श्व में, आगे या पीछे अलिंदक और ३५०८.तस्सऽसइ उड्ढवियडे, वसंति कडगादि छोढणं उवरिं। उपसारिका-पटालिका होती है, उसे कुशल व्यक्ति तस्सऽसति पासवियडे, कडगादी पंतवत्थेहिं॥ वंशीमूलगृह कहते हैं। ऐसे स्थान में रहने पर प्रतिबद्ध सूत्रोक्त वैसे वंशीमूलगृह के अभाव में ऊर्ध्वविवृतगृह के ऊपर दोष होते हैं। कटक आदि डालकर रहा जा सकता है। उसके अभाव में ३५०३.अट्टि व दारुगादी, सउणगपरिहार पुप्फ-फलमादी। पार्श्वविवृत स्थान में रहती हैं। वहां कट आदि या प्रान्तवस्त्रों एवं तु रुक्खमूले, अब्भावासम्मि सिण्हाई॥ से चारों ओर आच्छादित कर रहती हैं। वृक्षमूल में ठहरने पर ऊपर से अस्थि, लकड़ी आदि गिर ३५०९.विहं पवन्ना घणरुक्खहेढे, सकती है, पक्षियों का परिहार-बीट आदि गिरती है, पुष्प, वसंति उस्सा-ऽवणिरक्खणट्ठा। फल आदि भी गिरते हैं। अभ्रावकाश में (खुले आकाश में) तस्साऽसती अब्भगवासिए वि, रहने पर ओस गिरता है, सचित्त रज आदि भी गिरते हैं। सुवंति चिट्ठति व उण्णिछन्ना॥ ३५०४.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीये। विह अर्थात् मार्गगत साध्वियां यदि अधोविवृतगृह भी ___ वाडगआगमणगिहे, इयरम्मि य णिग्गहसमत्थे॥ प्राप्त नहीं कर सकतीं तो घने वृक्षमूल में अवश्याय तथा अध्वनिर्गत आदि श्रमणियां गांव में विशुद्ध वसति की सचित्त पृथ्वी की रक्षा के लिए रहती हैं। उसके अभाव में तीन बार मार्गणा करती हैं। यदि वह प्राप्त न हो तो वाटक के अभावकाश-खुले आकाश में और्णिक कल्प से आच्छादित मध्यवर्ती आगमनगृह में रह सकती हैं। यदि शय्यातर होकर सोती हैं या ठहरती हैं। जितेन्द्रिय तथा निग्रह करने में समर्थ हो तो वहां रहा जा __ कप्पइ निग्गंथाणं अहे आगमणगिर्हसि सकता है, अन्यथा नहीं। ३५०५.जं देउलादी उणिवेसणस्सा, वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा मज्झम्मि गुत्तं सुपुरोहडं च। रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा अदुट्ठगम्भ ण य दुट्ठमज्झे, वत्थए। ___ अदूरगेहं तहियं वसंति॥ (सूत्र १२) गांव के मध्य में देवकुल आदि वृति से गुप्त तथा सुपुरोहड-रमणीय विचारभूमी से युक्त, सज्जन व्यक्तियों का ३५१०.एसेव गमो नियमा, निग्गंथाणं पि णवरि चउलहुगा। आश्रय-स्थल तथा जो दुष्ट लोगों के मध्य न हो, तथा जहां णवरिं पुण णाणतं, अब्भावासम्मि वतिगादी॥ निकट ही अन्यान्य घर हों, ऐसे स्थान में रह सकती हैं। यही अर्थात् निर्ग्रन्थी सूत्रोक्त विकल्प नियमतः निर्ग्रन्थों के ३५०६.जुवाणगा जे सविगारगा य, लिए भी है। उनके प्रायश्चित्त चतुर्लघुक है। दोषजाल पूर्ववत् पुत्तादओ तुज्झ इहं वसंति। ही है केवल अपवादपद में नानात्व है। ग्लान के लिए गोकुल मा ते वि अम्हं इह संवयंतु, आदि में जाने पर अभ्रावकाश में रह सकते हैं। इच्छंत सत्ते य वसंति तत्थ॥ ३५११.सुत्तनिवाओ पोराण आगमे भोइए व रक्खंते। वहां जो शय्यातर है उसे कहती हैं-तुम्हारे जो पुत्र आदि आराम अहेविगडे, वंसीमूले व णिहोसे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org

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