Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 430
________________ ३६० बृहत्कल्पभाष्यम् के निवारण के लिए शब्द करते हैं, उपयोग रखते हैं. धनष्य से या पाषाण से पक्षियों की वासना करते हैं, सोट्टाशुष्ककाष्ठ आदि जो वृक्ष पर पहले से लगे हुए हैं उनको नीचे गिराते हैं। (आगाढ़ ग्लानत्व में दूध आदि का प्रयोजन होता है। वजिकागमन के अवसर पर अभ्रावकाश में रहना कल्पता है।) ३५१७.विसोहिकोडिं हवइत्तु गामे, चिरं व कज्जं ति वयंति घोसं। अन्मासगामाऽसति तत्थ गंतुं, पडालि-रुक्खाऽसतिए अछण्णे॥ स्वग्राम में यदि शुद्धरूप में दूध आदि की प्राप्ति न होती हो तो वहीं विशुद्धिकोटि के दोषों को पंचक आदि प्रायश्चित्त के आधार पर दूध आदि लेते हैं। चिरकाल तक उसकी आवश्यकता होने पर गोकुल में जाते हैं। गोकुल के निकटस्थ गांव में रहकर दूध आदि गोकुल से लाते हैं। इसके अभाव में गोकुल में पाटलिका में रहते हैं। उसके अभाव में वृक्षमूल में और उसके अभाव में अभ्रावकाश में रहते हैं। सागारिय-पदं सूत्र का समवतार पुराने आगमनगृह अथवा जहां रहने पर भोजिक रक्षा करता है, तथा अधोविवृत आरामगृह और निर्दोष वंशीमूलगृह के लिए है। ३५१२.अभुज्जमाणी उ सभा पवा वा, गामेगपासम्मि ण याऽणुपंथे। पभू व वारेति जणं उतं, ण कुप्पती सोय तहिं तु ठंति॥ परिभोग में न आनेवाली सभा, प्रपा गांव के एक पार्श्व में होती है और वे मुख्य मार्ग के निकट नहीं होती। वहां ठहरने पर प्रभु-ग्रामस्वामी आने वालों को निवारित करता है और यदि आने वाले कुपित नहीं होते तो वहां रहा जा सकता है। ३५१३.गुम्मेहि आरामघरम्मि गुत्ते, वईय तुंगाय व एगदारे। अहे अगुत्ते छइतम्मि ठंती, _ण जत्थ लोगो बहु सण्णिलेति॥ गुल्म अर्थात् कोरण्टक आदि से गुप्त आरामगृह जो ऊंची वृति से परिक्षिप्त हो, एक द्वार वाला, अधोगुप्त और ऊपर से आच्छादित हो, वहां रहा जा सकता है। वहां बहुत लोग नहीं आते। ३५१४. वंसिमूलऽण्णमुहं च तेणं, पिहढुवार ण तओ उ छिंडी। सुणेति सई न परोप्परस्स, नकाइयं णेव य दिट्ठिवातो॥ जो वंशीमूल मूलगृह से विपरीत मुंह वाला है, पृथक् द्वार वाला है, उसके छिंडिका नहीं होती, वहां परस्पर होने वाले शब्द सुनाई नहीं देते, कायिकी एकत्र नहीं होती, परस्पर दृष्टिपात नहीं होता-ऐसे स्थान में रहना कल्पता है। ३५१५.असई य रुक्खमूले, जे दोसा तेहिं वज्जिए ठंति। अद्धाणमन्भवासे, गेलण्णागाढ वइगादी। आगमनगृह आदि के अभाव में जो दोष वृक्षमूल में रहने पर बताए गए हैं उनसे वर्जित वृक्षमूल में रहा जा सकता है। तथा मार्ग प्रतिपन्न या आगाढ़ ग्लानत्व के कारण व्रजिका आदि में गए हुए हों तो अभ्रावकाश में रह सकते हैं। ३५१६.कडं कुणंतेऽसति मंडवस्सा, कडाऽसती पोत्तिमतेणगम्मि। सहोवओगो धणुतासणा य, सोट्टादि पाडिंति य पुव्वलग्गे। वृक्षमूल में मंडप हो तो वहां रहे। उसके अभाव में कट का प्रयोग करते हैं। उसके अभाव में कपड़ों की चिलिमिलिका करते हैं, यदि चोरों का भय न हो तो। पक्षियों एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिण्णि चत्तारि पंच सागारिया पारिहारिया, एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निव्विसेज्जा॥ (सूत्र १३) ३५१८.जहुत्तदोसेहिं विवज्जिया जे, उवस्सगा तेसु जती वसंता। एग अणेगे व अणुण्णवित्ता, वसंति सामि अह सुत्तजोगो॥ यथोक्त (पूर्वोक्त) दोषों से विवर्जित जो उपाश्रय हैं उनमें यदि रहते हैं तो एक या अनेक गृहस्वामियों से अनुज्ञा लेकर वहां रहते हैं। यह पूर्वसूत्र के साथ योग-संबंध है। ३५१९.सागारिउ त्ति को पुण, काहे वा कतिविहो व से पिंडो। असिज्जायरो व काहे, परिहरियव्वो व सो कस्सा। ३५२०.दोसा वा के तस्सा, कारणजाए व कप्पती कम्मि। जयणाए वा काए, एगमणेगेसु घेत्तव्यो। शय्यातर कौन होता है? शय्यातर कब होता है? उसका पिंड कितने प्रकार का होता है? अशय्यातर कब होता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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