Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 424
________________ ३५४ बृहत्कल्पभाष्यम् ३४५७.अद्धाणविवित्ता वा, परकड असती सयं तु जालेति। सार्वरात्रिक दीपक वाले उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का सूलाई व तवेउं, कयकज्जा छार अक्कमणं॥ प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त किसके हैं? अगीतार्थ के। सूत्र मार्ग में जो लूटे गए हैं वे दूसरे द्वारा प्रज्वलित अग्नि से गीतार्थ विषयक है। अपने आपको तपा सकते हैं। यदि वह प्राप्त न हो तो स्वयं (आगे गाथा ३३१३ से ३३३४ पर्यन्त गाथाएं अध्याहार्य अग्नि जला सकते हैं। शूल आदि को तपाने के लिए स्वयं हैं। ऐसा वृत्तिकार ने लिखा है।) अग्नि जलाते हैं। कार्य संपन्न होने पर वे उस अग्नि को राख ३४६२.उवगरणे पडिलेहा, पमज्जणाऽऽवास पोरिसि मणे य। से ढंक देते हैं। निक्खमणे य पवेसे, आवडणे चेव पडणे य॥ ३४५८.सावयभय आणिंति व,सोउमणा वा वि बाहि नीणिंति। प्रदीपयुक्त उपाश्रय में रहने वाले मुनियों के उपकरण के बाहिं पलीवणभया, छारे तस्सऽसति निव्वावे॥ प्रत्युपेक्षण में, वसति के प्रमार्जन में, आवश्यक करने में, श्वापद का भय होने पर अन्य स्थान से अग्नि लाते हैं। सूत्रार्थ की पौरुषी करने में, मन में राग-द्वेष करने में, और सोते समय उसको बाहर रख देते हैं। बाहर आग लगने निष्क्रमण ओर प्रवेश में क्रमशः नैषेधिकी और आवस्सही का भय हो तो उसे राख से ढक देते हैं। राख का अभाव हो करने में, आपतन-टकरा कर गिरने में तथा पतन में तो अग्नि को बुझा देते हैं। तेजस्काय अथवा स्वयं की विराधना होती है। अतः तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। दोष के भय से उपरोक्त क्रियाएं न करने उबस्सए पईव-पदं पर भी प्रायश्चित्त आता है। उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए ३४६३.पणगं लहुओ लहुगा, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु। पईवे दिप्पेज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा लहुगा गुरुगा य मणे, सेसेसु वि होति चउलहुगा॥ उपकरणों का प्रत्युपेक्षण न करने पर जघन्य में पंचक, निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हरत्था मध्यम में मासलघु और उत्कृष्ट में चतुर्लघु, वसति आदि का य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं प्रमार्जन न करने पर मासलघु, आवश्यक न करने पर से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। जे चतुर्लघु, सूत्र पौरुषी न करने पर मासलघु और अर्थ पौरुषी तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं न करने पर मासगुरु का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार दोष के वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥ भय से भी उपकरण की प्रत्युपेक्षा करने, वसति की प्रमार्जना करने, सूत्रार्थ की पौरुषी करने-इन चारों में प्रत्येक का (सूत्र ७) प्रायश्चित्त है चतुर्लधु। मन में राग-द्वेष करने से क्रमशः ३४५९.देसीभासाय कयं, जा बहिया सा भवे हुरच्छा उ। चतुर्गुरु और चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। शेष में चतुर्लघु का बंधऽणुलोमेण कयं, छेया परिहार पुव्वं तु॥ प्रायश्चित्त है। ३४६०.अहवण वारिज्जतो, निक्कारणओ व तिण्ह व परेणं। ३४६४.गुरुगा य पगासम्मि उ, लहुगा ते चेव अप्पगासम्मि। छेयं चिय आवज्जे, छेयमओ पुव्वमाहंसु॥ सायम्मि होति गुरुगा, अस्साए होति चउलहगा। 'हुरत्था' शब्द देशीभाषा में बाह्य अर्थ में प्रतिबद्ध है। यदि प्रदीप का प्रकाश रुचिकर लगता है तो चतुर्गुरु विवक्षित उपाश्रय के बहिर्वर्ती वगडा को 'हुरत्था' कहा जाता और अप्रकाश रुचिकर होता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। है। बन्धानुलोमता से परिहारपद से पूर्व छेदपद है। यदि प्रकाश में साता (रति) होती है तो चतुर्गुरु और असाता अथवा प्रदीपयुक्त उपाश्रय में रहने की वर्जना करने पर भी (अरति) होती है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। यदि कोई निष्कारण ही तीन दिनरात से अधिक रहता है, तो ३४६५.पडिमाए झामियाए, उड्डाहो तणाणि वा भवे हेट्ठा। छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए छेदपद पहले कहा साणाइ चालणा लाल,मूसए खंभ तणाई पलीवेज्जा। गया है। देवकुल आदि में प्रतिमा के सम्मुख जो प्रदीप रहता है ३४६१.दुविहो य होइ दीवो, असव्वराई य सव्वराई य। उसको बुझा देने पर उड्डाह होता है। नीचे संस्तारक आदि के ___ठायंते लहु लहुगा, कास अगीयस्थ सुत्तं तु॥ तृण जल जाते हैं। श्वान आदि से प्रदीप इधर-उधर हो दीपक के दो प्रकार हैं-असार्वरात्रिक और सार्वरात्रिक। सकता है। मूषक दीपक की वर्तिका को ले जाते हैं, उससे असार्वरात्रिक दीपकयुक्त उपाश्रय में रहने पर मासलघु और स्तंभ या तृणों में आग लग सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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