Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 417
________________ दूसरा उद्देशक ३३९२. सेज्जायरो य भणती, अण्णं धण्णं पुणो वि होहिति णे । एसो अणुग्गहो मे, जं साधु ण दुक्खविओ को वि॥ शय्यातर बोला- हमारे धान्य की प्राप्ति और भी हो जाएगी। मेरे पर यह महान् अनुग्रह हुआ है कि आपके किसी भी मुनि को चोरों ने दुःख नहीं दिया, पीड़ित नहीं किया । वा अह पुण एवं जाणेज्जा -नो रासिकडाई नो पुंजकडाई नो भित्तिकडाई नो कुलियकडाई, कोद्वाउत्ताणि पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा लित्ताणि वा 'लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पहियाणि वा', कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए । (सूत्र ३) ३३९३. कोट्ठात्ता य जहिं, पल्ले माले तधेव मंचे य। ओलित्त पहिय मुद्दिय, एरिसए ण कप्पती वासो ॥ जिस उपाश्रय में कोष्ठागुप्त, पल्यागुप्त, मालागुप्त, मञ्चागुप्त, अवलिप्त, पिहित, मुद्रित, लिप्त या लांछित - इस रूप में धान्य हों तो इस प्रकार के उपाश्रय में रहना कल्पता है। ३३९४. छगणादी ओलित्ता, लित्ता मट्टियकता उ ते चेव । कोट्ठियमादी पिहिता, लित्ता वा पल्ल- कडपल्ला ॥ ३३९५. आलिंपिऊण जहि अक्खरा कया लंछियं तयं विंति । जहियं मुद्दा पडिया, होति तगं मुद्दियं धण्णं ॥ जिस धान्य कोठे के द्वार गोबर आदि से लिप्त हों वे अवलिप्स और जो मिट्टी से खरंटित हों वे लिप्त, जिसके कपाट ढंके हुए हो वह पिहित है। पल्य और कटपल्य लिस होते हैं। अवलिप्स कर जहां अक्षर लिखे हैं वह लांछित कहलाता है जो मुद्रायुक्त होता है वह धान्य मुद्रित कहलाता है। ३३९६. उडुबद्धम्म अतीए, वासावासे उवतेि संते। ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु ॥ ऋतुबद्ध काल के बीत जाने पर तथा वर्षावास का काल उपस्थित हो जाने पर कोष्ठागुप्त आदि धान्ययुक्त उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। १. पल्य से कटपल्य बड़ा होता है। Jain Education International ३४७ यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। प्रस्तुत सूत्र गीतार्थ विषयक है। ३३९७. अणुभूता धण्णरसा, नवरं मुत्तूण गंधसालीणं । काहामि कोउहल्लं, बेरीए परंपणं भणियं ॥ धान्यगृह में रहते हुए किसी मुनि के मन में यह इच्छा हो सकती है- 'मैंने अनेक धान्यों के रस स्वाद चखें हैं, परन्तु गंधशाली का स्वाद कभी नहीं चखा। मैं अपना कुतूहल पूरा करूंगा' यह सोचकर वह गंधशाली निकाल कर किसी स्थविरा को रांधने के लिए देता है, कहता है-इसे पकाकर लाओ । ३३९८. इहरा कहासु सुणिमो, इमे हु ते कलमसालिणो सुरभी। थोवे वि णत्थि तित्ती, को य रसो अण्णमण्णाणं ॥ इससे पूर्व तक हम कलमशाली की बात कथाओं में सुनते आए हैं कि वे सुरभिमय होते हैं। आज तो ये प्रत्यक्ष हैं। थोड़े से इनसे तृप्ति नहीं होगी । अन्योन्यमिश्रित इनका स्वाद कैसा होता है, यह जानना चाहिए। (उस मुनि ने पल्य से शाली को निकाल कर स्थविरा श्राविका को दिया। वह पकाकर मुनि को देती। उनके स्वाद से अभिभूत मुनि प्रतिदिन ऐसा करने लगा ।) ३३९९. निग्घोलियं च पल्लं कज्जे सागारियस्स अतिगमणं । सागारिओ विसन्नो, भीतो पुण पासए कूरं ॥ ३४००, सो भइ कओ लन्दो, एसो अहं खु लखिसंपन्नो । ओभावणं व कुज्जा, पिरत्यु ते एरिसो लाभो ॥ इस प्रकार मुनि ने एक पल्य खाली कर दिया। किसी कार्यवश गृहपति वहां आया। वह शाली को खाली देखकर विषण्ण हो गया। उसे चोरों का भय लगा घूमते-घूमते उसने साधु को शालिकूर लाते देखा । गृहस्वामी ने पूछा- यह शालिकर कहां से मिला? एक साधु ने कहा- हमारा यह साधु लब्धिसंपन्न है । प्रतिदिन यह ऐसा शालिकूर लाता है। तब गृहस्थ बोला- धिक्कार है तुम्हारे ऐसे लाभ से । वह लोगों में उस मुनि का उल्लाह करता है उससे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। ३४०१. हर वि ताव अम्हं, भिक्ख व बलिं व गिण्डड न किंचि । इण्डिं खु तारिओ मिं, ठवेमि अन्ने विजा धन्ने ॥ यदि गृहस्वामी भद्रक हो तो वह कहेगा आप हमारे घर से भिक्षा अथवा बलि में बचे पदार्थों को ग्रहण करें। आपकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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