Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 394
________________ ३२४ कहे-मैं संखडी का अतिक्रमण कर दूंगा अथवा अन्यापदेश से प्रत्युत्तर दे। ३१९४.तहियं पुव्वं गंतुं, अप्पोवासासु ठाति वसहीसु। जे य अविपक्कदोसा, ण णेति ते तत्थ अगिलाणे॥ संखडी वाले ग्राम में पहले ही जाकर अल्पावकाश वाली वसति में रह जाए। जो मुनि अविपक्वदोष-अजितेन्द्रिय हों वे ग्लानकार्य के अभाव में बाहर न जाएं। ३१९५.विणा उ ओभासित-संथवेहिं, जं लब्भती तत्थ उ जोग्गदव्वं। गिलाणभुत्तुव्वरियं तगं तु, न भुंजमाणा वि अतिक्कमंति॥ वहां बिना याचना और संस्तुति के ग्लानप्रायोग्य जो द्रव्य प्राप्त हो उसे ग्रहण करे। ग्लान के खाने के पश्चात् उसमें से बचे भक्त को अन्य मुनि खाते हुए भी भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। ३१९६.ओभासियं जं तु गिलाणगट्ठा, तं माणपत्तं तु णिवारयंति। तुब्भे व अण्णे व जया तु बेति, भुंजेत्थ तो कप्पति णऽण्णहा तू॥ ग्लानप्रायोग्य जो द्रव्य याचना से प्राप्त है, वह प्रामाणोपेत ही ग्रहण करे, अधिक का निवारण करे। उस समय यदि गृहस्थ कहे-आप या अन्य साधु इसका परिभोग करें तो प्रमाण से अधिक भी ग्रहण किया जा सकता है, अन्यथा =बृहत्कल्पभाष्यम् के पात्र में डालती हैं। अतः आर्यिकाओं के हाथों से ग्लानप्रायोग्य द्रव्य लिया जाता है। ३१९९.अलब्भमाणे जतिणं पवेसे, अंतपुरे इन्भघरेसु वा वि। उज्जाणमाईसु व संठियाणं, अज्जाउ कारिंति जतिप्पवेसं॥ उद्यान आदि में रहे हुए मुनियों का अन्तःपुर तथा इभ्यगृहों में प्रवेश न हो पाने की स्थिति में आर्यिकाएं प्रयत्न कर उन स्थानों में मुनियों का प्रवेश कराती हैं। (आर्यिकाएं अन्तःपुर आदि में जाकर उनको प्रभावित करती हैं और तब यतिप्रवेश सुलभ हो जाता है।) ३२००.पुराणमाईसु व णीणवेंति, गिहत्थभाणेसु सयं व ताओ। अगारिसकाए जतिच्चएही, हिट्ठोवभोगेहि अ आणवेती॥ आर्यिकाएं गृहस्थ के भाजन में ग्लान प्रायोग्य द्रव्य लेकर पुराणपुरुष आदि श्रावक के साथ वह साधु के पास भेजती हैं। यदि ऐसा गृहस्थ न मिले तो वे स्वयं उसे ले जाती हैं। गृहस्थ यह शंका करता है ये गृहस्थ के भाजन में उत्कृष्ट द्रव्य लेकर किसी गृहस्थ को देंगी। अतः उसे मुनियों के अधस्ताद्-उपभोग्य भाजन अर्थात् असंभोज्य भाजन में ले आती हैं। ३२०१.तेसामभावा अहवा वि संका, गिण्हति भाणेसु सएसु ताओ। अभोइभाणेसु उ तस्स भोगो, गारत्थि तेसेव य भोगिसू वा॥ यदि असंभोग्य भाजन न हों अथवा उन भाजनों में लेने पर गृहस्थों को शंका होती है तो वे आर्यिकाएं अपने भाजन में भक्त लेकर जाती हैं तब मुनि असंभोग्य भाजनों में वह लेकर उस द्रव्य का भोग करते हैं। असंभोज्य भाजनों के अभाव में गृहस्थों के भाजनों का उपयोग करे और उनके अभाव में संयतियों के भाजन में भोजन करे। संयतियों को अपने भाजनों की शीघ्र जरूरत हो तो सांभोगिकों के भाजनों का उपयोग करें। ३२०२.अद्धाणनिग्गयादी, पविसंता वा वि अहव ओमम्मि। उवधिस्स गहण लिंपण, भावम्मि य तं पि जयणाए। अध्वनिर्गत या अध्व में प्रवेश करने के इच्छुक अथवा अवम-दुर्भिक्ष होने पर या उपधि आदि तथा लेप लेने के लिए या शैक्ष का भाव हो जाने पर संखडी में यतनापूर्वक जाया जा सकता है। नहीं। ३१९७.दिणे दिणे दाहिसि थोव थोवं, दीहा रुया तेण ण गिहिमोऽम्हे। ण हावयिस्सामो गिलाणगस्सा, तुब्भे व ता गिण्हह गिण्हणेवं॥ मुनि उन गृहस्थों से कहे-ग्लान का रोग दीर्घकाल तक रहने वाला है। अतः यदि तुम प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा दोगे तो वह ग्लान के काम आ जायेगा, अतः हम ज्यादा नहीं लेंगे। यदि तब गृहस्थ कहे-हम ग्लान के प्रायोग्य द्रव्य में कभी कमी नहीं आने देंगे। आप भी ग्रहण करें। ऐसा कहने पर मुनि ग्रहण करें। ३१९८.न वि लब्भई पवेसो, साधूणं लब्भएत्थ अज्जाणं। वावारण परिकिरणा, पडिच्छणा चेव अज्जाणं॥ अन्तःपुर आदि में जहां साधुओं का प्रवेश नहीं होता वहां आर्यिकाओं का प्रवेश हो सकता है। अतः ग्लानप्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति के लिए आर्यिकाओं को व्यापृत करनी चाहिए। ग्लान प्रायोग्य द्रव्य लाकर साधुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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