Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 400
________________ ३३० : बृहत्कल्पभाष्यम् कंकर, पत्थर, कंटक तथा मयूर और नकुल वाले मार्ग को ३२५४.बुद्धीबलं हीणबला वयंति, छोड़ देता हूं। मैं अदुष्ट और दुष्ट बिलों को जानता हूं। तू किं सत्तजुत्तस्स करेइ बुद्धी। इनमें से एक भी नहीं जानती। इस अज्ञान के कारण तुम खिन्न किं ते कहा णेव सुता कतायी, मत होना। वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा॥ पुच्छिका कहती है-हे शीर्षक! तुम ज्ञायक बने रहो, मैं सर्पशीर्ष के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर पूंछ बोलती अज्ञायिका ही रहंगी। अच्छा, तुम आज आगे-आगे चलो। मैं है-हीन बल अर्थात् निःसत्व व्यक्ति ही बुद्धिबल को बड़ा नंगलीपाशक से लग कर यहीं रह जाती हूं। हे शीर्षक! तुम बता सकते हैं। जो सत्वयुक्त हैं उनका बुद्धि क्या करेगी? शीघ्रता कर यहां से चलो, चलो। सत्व ही कार्यसिद्धि का प्रतीक होता है। क्या तुमने कभी यह शीर्षक बोला-'हे अकोविदे! हे मूर्खे! तुम मेरे से आगे हो नहीं सुना कि यह वसुधा-पृथ्वी शूरवीर व्यक्तियों द्वारा भोग्य जाओ। अपंडित मूर्ख से विरोध करना अच्छा नहीं होता। हे होती है। कहा हैमूर्खे! यदि तू मेरे वंश का उच्छेद देखकर भी जाती है तो नेयं कुलक्रमायाता, शासने लिखिता न वा। तेरा भी विनाश ही होगा। खड्गेनाक्रम्य भुजीत, वीरभोग्या वसुन्धरा॥ ३२५१.कुलं विणासेइ सयं पयाता, ३२५५.असंसयं तं अमुणाण मग्गं, नदीव कुलं कुलडा उ नारी। गता विधाणे दुरतिक्कमम्मि। निब्बंध एसो णहि सोभणो ते, इमं तु मे बाहति वामसीले!, जहा सियालस्स व गाइतव्वे॥ अण्णे वि जं काहिसि एक्कघातं॥ स्वच्छंदरूप में चलने वाली कुलटानारी दोनों कुलों- शीर्षक बोला-'निस्सन्देह तुम मूों के मार्ग को प्राप्त हो पितृकुल और श्वसुरकुल का विनाश वैसे ही कर देती है, गई हो अर्थात् आत्मोपघात करने पर तुली हुई हो। क्योंकि जैसे महाप्रवाह से नदी अपने दोनों कूलों-तटों का विनाश । विधान अर्थात् भवितव्यता दुरतिक्रम होती है। हे वामशीले। कर देती है। हे पूच्छिके! इस प्रकार का निर्बन्ध-कदाग्रह । प्रतिकूल पथगामिनी! मुझे यही बाधा पहुंचाता है कि तुम तुम्हारे लिए सुन्दर नहीं होगा, जैसे शृगाल का गाने का स्वयं के अतिरिक्त दूसरों को भी एकघात करोगी-मार दोगी। कदाग्रह उसके विनाश का कारण बना।' ३२५६.सा मंदबुद्धी अह सीसकस्स, ३२५२.उल्लत्तिया भो! मम किं करेसी, सच्छंद मंदा वयणं अकाउं। थाम सयं सुट्ट अजाणमाणी। पुरस्सरा होतु मुहुत्तमेत्तं, सुतं तया किण्ण कताइ मूढे !, अपेयचक्खू सगडेण खुण्णा॥ जं वाणरो कासि सुगेहियाए॥ वह मंदबुद्धिवाली पुच्छिका शीर्षक के वचन को नहीं हे पुच्छिके! तुम अपनी शक्ति को भलीभांति न जानती मानती हुई, स्वच्छंद मति से पुरस्सर होकर मंदगति से जाने हुई मेरी ओर मुड़कर भी मेरा क्या कर लोगी? हे मूढ़े! क्या चली। वह अपेतचक्षु-अंधी पुच्छिका मुहूर्त्तमात्र आगे चली तुमने कभी यह नहीं सुना जो बंदर ने सम्मुख होकर उस और एक शकट से क्षुण्ण होकर मृत्युधाम में पहुंच गई। सुगृहवाली बया पक्षी का किया था। ३२५७.जे मज्झदेसे खलु देस-गामा, ३२५३.न चित्तकम्मस्स विसेसमंधो, अतिप्पितं तेसु भयंतु! तुज्झं। संजाणते णावि मियंककंति। लुक्खण्ण-हिंडीहिं सुताविया मो, किं पीढसप्पी कह दूतकम्म, अम्हं पिता संपइ होउ छंदो॥ __ अंधो कहिं कत्थ य देसियत्तं॥ जो अगीतार्थ शिष्य हैं, वे आचार्य से कहते हैं-भदन्त! देख, अंधा व्यक्ति चित्रकर्म की रमणीयता को नहीं जान आर्यक्षेत्र में जो देश हैं, गांव हैं, वहां विहरण करना अत्यंत पाता और न वह चन्द्रमा की कान्ति को जान पाता है। कहां प्रिय है। किन्तु रूक्षान्न मात्र खाते रहने से तथा इधर-उधर तो पीठसी अर्थात् पंगु और कहां दूतकर्म करने वाला परिभ्रमण करने से अत्यंत तापित हो गए हैं। अतः अब हम संदेशहारक! कहां तो अंधा व्यक्ति और कहां मार्गदर्शक! भी स्वच्छंदरूप से विहरण करना चाहते हैं। १,२. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं.८४,८५। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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