Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 410
________________ ३४० आपवादिकसूत्र हैं ३. कुछ तदुभयसत्र होते हैं वे दो प्रकार के हैं। ४. (१) उत्सर्ग आपवादिक और (२) अपवाद औत्सर्गिक ये सूत्र के चार गम हैं-प्रकार हैं अथवा 'गम' का अर्थ है-दो बार उच्चारण करने योग्य पद। जैसे उत्सर्गोत्सर्गिक, अपवादापवादिक। इस प्रकार सूत्र के ४+२=६ भेद हो गए। ३३१७. गेस एगगहणं, सलोम णिल्लोम अकसिणे अइणे । विहिभिन्नस्स य गहणं, अववाउस्सग्गियं सुत्तं ॥ सूत्र के ये भेद भी हैं-एक के ग्रहण से अनेक का ग्रहण कराने वाले सूत्र होते हैं। कुछेक सूत्र केवल साध्वियों के लिए, कुछेक सूत्र केवल साधुओं के लिए और कुछेक सूत्र - दोनों के लिए सामान्य होते हैं। जैसे - साधुओं को निर्लोम चर्म ग्रहण करना नहीं कल्पता और सलोम चर्म ग्रहण करना कल्पता है। साध्वियों को सलोम चर्म धारण करना कल्पता नहीं और अलोम चर्म धारण करना कल्पता है। साधु-साध्वियों को धर्म के टुकड़े लेना कल्पता है यह सामान्य सूत्र है । विधिभिन्न प्रलंब ग्रहण का जो सूत्र है वह अपवादीत्सर्गिक सूत्र है।" ३३१८. उस्सग्गठिई सुद्धं, जम्हा दव्वं विवज्जयं लभति । ण व तं होइ विरुद्धं एमेव इमं पि पासामो॥ शिष्य ने पूछा- जिसकी अपवादपद में अनुज्ञा है उसका प्रतिषेध क्यों ? आचार्य ने कहा- उत्सर्गपद में जो शुद्ध द्रव्य लेने की अनुज्ञा है वही अपवाद में विपरीत हो जाती है अर्थात् अशुद्ध द्रव्य लेने की अनुज्ञा भी हो जाती है। यह ग्रहण करना विरुद्ध नहीं है। इसी प्रकार अपवादपद में अनुज्ञात होने पर भी अविधिभिन्न प्रलंब के ग्रहण का प्रतिषेध भी अविरुद्ध ही है। ३३१९. उस्सग्ग गोयरम्मी निसेज्ज कप्पाऽववादतो तिच्हं । मंसं दल मा अट्ठी, अववादुस्सग्गियं सुत्तं ॥ उत्सर्ग सूत्र गोचरी में गए हुए मुनि को दो घरों के अपान्तराल में निषद्या करना नहीं कल्पता । ३ तीन व्यक्तियों-वृद्ध, रोगी और तपस्वी को निषद्या कल्पती है यह आपवादिक सूत्र है।" अपवादौत्सर्गिक सूत्र - मांस दो, अस्थि नहीं। 'मंसं दल मा अट्ठी' । ३३२०. नो कप्पति व अभिन्नं, अववातेणं तु कप्पती भिन्नं । कप्पति पक्कं भिण्णं, विधीय अववायउस्सग्गं ॥ अभिन्न प्रलंब ग्रहण करना नहीं कल्पता" - यह उत्सर्ग १. जैसे- कषाय आदि के सूत्र में एक क्रोधनिग्रह की बात है । किन्तु उसके आधार पर मान आदि अन्य कषायों के भी निग्रह की बात अर्थतः जान लेनी चाहिए। २. देखें बृहत्कल्प, पहला उद्देशक, सूत्र ५। Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् सूत्र है। अपवादपद में भिन्न प्रलंब कल्पता है - यह अपवाद सूत्र है। श्रमणियों को पक्व विधिभिन्न प्रलंब कल्पता है यह अपवादीत्सर्गिक सूत्र है। (उत्सर्ग आपवादिक' उत्सर्ग औत्सर्गिक' । ३३२१. कत्थइ देसग्गहणं, कत्थति भण्णंति णिरवसेसाई । उक्कम-कमजुत्ताई, कारणवसतो णिजुत्ताई ॥ सूत्र में कहीं-कहीं अभिधेयपद का देशतः ग्रहण होता है और कहीं-कहीं अभिधेयपद का निरवशेष कथन होता है। कुछ सूत्र उत्क्रमयुक्त होते हैं, कुछ क्रमयुक्त होते हैं। ये सारे कारण विशेष के आधार पर रचे गए हैं। ३३२२. देसग्गहणे बीएहि सूयिया मूलमादिणो हुति । कोहादिअणिम्गहिया, सिंचंति भवं निरवसेसं ॥ सूत्र में देशग्रहण से तज्जातीय सभी का ग्रहण हो जाता है। बीजों के सूचित होने पर मूल आदि भी गृहीत होते हैं। सूत्र में निरवशेष अभिधेय का कथन-जैसे अनभिगृहीत क्रोध आदि संपूर्ण संसार का सिंचन करते हैं। ३३२३. सत्थपरिण्णादुक्कमे, गोयर पिंडेसणा कमेणं तु । जं पि य उक्कमकरणं, तमभिणवधम्ममादऽद्वा ॥ उत्क्रम सूत्र का उदाहरण है आचारांग सूत्र का पहला अध्ययन- शस्त्रपरिज्ञा (इसमें तेजस्काय के पश्चात् वनस्पति और उसकाय का निरूपण हुआ है। उसके पश्चात् वायुकाय का निरूपण है ।) । क्रम सूत्र का उदाहरण-'आठ गोचर भूमियां, सातपिण्डेषणाएं।' जो शस्त्रपरिज्ञा में उत्क्रम किया वह सप्रयोजन है जो अभिनवधर्मा शैक्ष मुनि हैं वे सहसा वायुकाय के जीवत्व को स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए पहले वनस्पति और त्रस जीवों की प्ररूपणा कर फिर वायुकाय की प्ररूपणा की गई है। ३३२४. बीएहि कंदमादी, वि सुविधा तेहिं सव्व वणकाओ। भोम्मादिगा वणेण तु समेद सारोवणा भणिता ॥ प्रस्तुत सूत्र में बीजों के ग्रहण से कन्द-मूल आदि भी सूचित होते हैं कन्द आदि से समस्त वनस्पतिकाय को सूचित किया गया है। वनस्पति से भौम आदि अर्थात् पृथ्वीकाय आदि कायों का ग्रहण है। इस प्रकार भेद-प्रभेद सहित छहों काय सारोपणा अर्थात प्रायश्चित्त सहित कड़े गए हैं। ३३२५. जत्थ उ देसग्गहणं, तत्थऽवसेसाइं मोत्तृणं अहिगारं, अण योगधरा ३-४. वही, तीसरा उद्देशक, सूत्र २१-२२ । ५-८. वही, पहला उद्देशक, सूत्र १,२,५,४२ । ९. वही, चौथा उद्देशक, सूत्र १२ । For Private & Personal Use Only सूइयवसेणं । प्रभासंति ॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450