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बृहत्कल्पभाष्यम् __संयमविराधना दो प्रकार की होती है-मूलगुणविषयक ग्लान के लिए रात्री अथवा संध्या में जाना कल्पता है। तथा उत्तरगुणविषयक। मूलगुण में महाव्रतों की विराधना जिस मार्ग से जाना है वह पूर्वदिष्ट होना चाहिए। आरक्षिक होती है। रात्री में अध्वगमन से छहकाय की विराधना होती को पहले कह देना चाहिए। है। यह प्रथम महाव्रत की विराधना है। द्वितीय महाव्रत में ३०५१.दुविहो य होइ पंथो, छिन्नद्धाणंतरं अछिन्नं च। अचोर को चोर कहलाता है। तृतीय महाव्रत में अदत्त कंद छिन्नम्मि नत्थि किंची, अछिन्न पल्लीहिं वइगाहिं।। आदि ग्रहण कर लिया जाता है।
पथ दो प्रकार के हैं-छिन्नाध्वान्तर, अछिन्नाध्वान्तर। ३०४६.दियदिन्ने वि सचित्ते, जिणतेन्नं किमुय सव्वरीविसए। छिन्नाध्वान्तर मार्ग में कोई गांव, नगर नहीं होता और
जेसिं व ते सरीरा, अविदिन्ना तेहिं जीवहिं॥ अछिन्नाध्वान्तर में पल्ली, वजिका आदि होते हैं। यद्यपि कन्द आदि दत्त ग्रहण करता है, फिर भी वह ३०५२.छिन्नेण अछिन्नेण व, रत्तिं गुरुगा य दिवसतो लहुगा। सचित्त होने के कारण तीर्थंकरों के द्वारा वह अनुज्ञात नहीं है, उद्दहरे पवज्जण, सुद्धपदे सेवती जं च॥ अतः दिन में भी उसे ग्रहण करना स्तैन्य है तो फिर रात्री में छिन्न या अछिन्न पथ से रात्री में जाने पर चतुर्गुरु और ग्रहण करने की बात ही क्या! जो कन्द आदि के शरीर हैं वे दिन में जाने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। जहां उन जीवों द्वारा अदत्त होने के कारण इससे तीसरे महाव्रत का ऊर्ध्वदर पूर्ण किए जाते हैं वहां की यात्रा करने पर उस शुद्ध भंग होता है।
पद में भी यह प्रायश्चित्त है। उसमें जो अकल्पनीय आदि की ३०४७.पंचमे अणेसणादी, छटे कप्पो व पढम बिइया वा। प्रतिसेवना की जाती है उसका पृथक् प्रायश्चित्त आता है।
__ भग्गवउ ति य जातो, अपरिणतो मेहुणं पि वए॥ ३०५३.उद्दहरे सुभिक्खे , खेमे निरुवहवे सुहविहारे।
अनेषणीय का ग्रहण पांचवें महाव्रत का हनन तथा छठे जइ पडिवज्जति पंथं, दप्पेण परं न अन्नेणं ।। व्रत में अध्वकल्प का परिभोग तथा पहले दूसरे परीषह से ऊर्ध्वदर, सुभिक्ष, क्षेम, निरुपद्रव और सुखविहार इस व्याकुल होकर खाने-पीने से छठे व्रत की विराधना होती है। प्रकार के जनपदों में जाने के लिए छिन्न-अछिन्न पथ को 'मैं भग्नव्रत हो गया हूं', यह सोचकर वह मैथुन का सेवन भी स्वीकार करते हैं। यह दर्प प्रतिसेवना अर्थात् देश-दर्शन के कर लेता है अथवा अपरिणत अपरिपक्व होने के कारण निमित्त की जा सकती है, अन्य प्रयोजन से नहीं। मैथुन का सेवन कर लेता है। यह सारी मूलगुणविराधना है। ३०५४.आणा न कप्पइ त्ति य, ३०४८.रीयादऽसोहि रत्ति, भासाए उच्चसहवाहरणं।
अणवत्थ पसंगताए गणणासो। न य आदाणुस्सग्गे, सोहए कायाइ ठाणाई।। वसणादिसमावण्णे, रात्री में ईर्यासमिति आदि का शोधन नहीं होता, परस्पर
मिच्छत्ताराहणा भणिया।। उच्चस्वर से बोलने के कारण भाषा समिति का, उदका शिष्य ने पूछा-ऐसा करने से क्या होता है? आचार्य आदि न देख सकने के कारण एषणासमिति का, अप्रत्युपेक्षित कहते हैं- भगवान् की आज्ञा है कि निग्रंथ को विहरण करना भूभाग पर स्थान, निषीदन आदि करने से आदाननिक्षेप- नहीं कल्पता-इस आज्ञा की विराधना होती है तथा अनवस्था समिति का, अस्थंडिल में कायिकी आदि का उत्सर्ग करने से का दोष और प्रसंग से अर्थात् परंपरा से गण का नाश होता उत्सर्गसमिति का इस प्रकार रात्री में पांचों समितियों का है। विहरण करने पर मार्ग में कोई व्यसन-आपदा आदि प्राप्त शोधन नहीं हो सकता।
होने पर मिथ्यात्व की आराधना होती है। ३०४९.वाले तेणे तह सावए य विसमे य खाणु कंटे य। ३०५५.वाय खलु वाय कंडग, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु। अकम्हाभयं आयसमुत्थं, रत्तिं मग्गे भवे दोसा॥
वाले सावय तेणे, एमाइ हवंति आयाए॥ रात्री में जाने से व्याल, स्तेन, श्वापद ये उपद्रव करते मार्ग में विहरण करते हुए खलुक-जानु आदि के संधि स्थल' हैं, विषमभूमी में स्खलन होता है, स्थाणु, कांटों आदि से पैर वायु से जकड़ जाते हैं। विषम भूमी पर या स्थाणु से टकरा कर बींध जाते हैं, आत्मसमुत्थ-अर्थात् मन की कल्पनाओं से चलते-चलते गिर सकते है, कांटें चुभते हैं, व्याल, श्वापद, कोई आकस्मिक भय उत्पन्न हो सकता है।
स्तेनक आदि उपद्रव करते हैं। यह आत्म-विराधना है। ३०५०.कप्पइ गिलाणगट्ठा, रतिं मग्गो तहेव संझाए। ३०५६.छक्कायाण विराहण, उवगरणं बाल-वुड्ड-सेहा य।
पंथो य पुव्वदिट्ठो, आरक्खिओ पुव्वभणिओ य॥ पढमेण व बिइएण व, सावय तेणे य मिच्छा य॥ १. 'वाय-कंडक'-जंघा में वायु के कारण कंडक-फोड़े सदृश उभर अप्ते हैं। वे कंडक कहलाते हैं।
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