Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 375
________________ पहला उद्देशक ३०५ इस प्रक उसको मिला उसका अकमेण पर असंविग्नभावित व्यक्ति अकल्प्य वस्त्र दे सकता है। यहां 'लुब्धक' का दृष्टांत (गाथा १६०७ वत्) जानना चाहिए। आभिग्राहिक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति विष दे सकता है, हीलना कर सकता है। २०९१.असंविग्गभाविएसुं, आगाढेसुं जयंति पणगादी। उवएसो संघाडग, पुव्वग्गहियं व अन्नेसु॥ असंविग्नभावित से वस्त्र ग्रहण करे। उनके अभाव में आगाढ़मिथ्यादृष्टि से वस्त्र ग्रहण करे, यदि आत्मा तथा प्रवचन का उपघात न हो तो। वहां भी प्राप्त न होने पर पंचक आदि प्रायश्चित्त की परिहानि से संविग्नभावित आदि व्यक्तियों से याचना करे। फिर अन्यतीर्थिक कुलों से, जहां _ पहले उपदेश दिया था वहां से, पश्चात् संघाटक के पास से, फिर उन्होंने जो वस्त्र पहले से लिए हुए हों, उनमें से ले। २९९२.उवएसो संघाडग, तेसिं अट्ठाए पुव्वगहियं तु। अभिनव पुराण सुद्धं, उत्तर मूले सयं वा वि॥ पहले अन्यसांभोगिक के उपदेश से वस्त्र ग्रहण के लिए पर्यटन करे। फिर उसके संघाटक के साथ। यदि वस्त्र प्राप्त न हो तो अन्यसांभोगिक उनके वस्त्रों के लिए पर्यटन करते हैं अथवा उनके द्वारा पूर्वगृहीत वस्त्र लेते हैं। वह वस्त्र नया हो या पुराना-ले लेते हैं। वह मूल-उत्तरगुण शुद्ध हो तो ले, अन्यथा नहीं। इतने पर भी यदि वस्त्र प्राप्त न हो तो कृतकरण मुनि स्वयं कपड़ा बुनकर उपभोग करे। २९९३.उवएसो संघाडग, पुव्वग्गहियं व निइयमाईणं। अभिनव पुराण सुद्धं, पुवमभुत्तं ततो भुत्तं॥ पार्श्वस्थ तथा नित्यवासी आदि साधुओं के उपदेश से वस्त्र प्राप्त करे। उसके अभाव में उनके ही संघाटक से, उसके अभाव में उन्हीं के द्वारा पूर्वगृहीत, नया या पुराना, शुद्ध, पूर्व अभुक्त वस्त्र ग्रहण करे। उसके अभाव में भुक्त वस्त्र भी लिया जा सकता है। २९९४.उत्तर मूले सुद्धे, नवे पुराणे चउक्कभयणेवं। परिकम्मण परिभोगे, न होंति दोसा अभिनवम्मि॥ मूलगुण और उत्तरगुण से विशुद्ध वस्त्र संबंधी चतुभंगी। १. मूलगुण और उत्तरगुण-दोनों से शुद्ध। २. मूलगुणशुद्ध, उत्तरगुणशुद्ध नहीं। ३. मूलगुणशुद्ध नहीं, उत्तरगुणशुद्ध। ४. दोनों से शुद्ध नहीं। इन चारों भंगों में प्रत्येक के साथ नये और पुराने वस्त्र विषयक जो चतुर्भगी होती है, उसकी भजना है। अभिनव वस्त्र में परिकर्म (अविधि से सीए हए आदि) तथा परिभोग (धोना, सुगंधित करना) आदि दोष नहीं होते। २९९५.असईय लिंगकरणं, पन्नवणट्ठा सयं व गहणट्ठा। आगाढे कारणम्मी, जहेव हंसाइणो गहणं॥ इस प्रकार भी यदि वस्त्र प्राप्ति न हो तो अन्यलिंगी के वेश में उन उपासकों को यह प्रज्ञापित करे कि मुनियों को वस्त्रदान दे अथवा स्वयं अन्यलिंगी का वेश पहनकर वस्त्र का उत्पादन करे, वस्त्र-ग्रहण करे। क्योंकि आगाढ़ कारण में जैसे हंसतैल आदि के ग्रहण की अनुज्ञा है, वैसे ही वस्त्रग्रहण की अनुज्ञा भी जान लेनी चाहिए। २९९६.सेडुय रूए पिंजिय, पेलु ग्गहणे य लहुग दप्पेणं। तव-कालेहि विसिट्ठा, कारणे अकमेण ते चेव ॥ 'सेडुग' का अर्थ है कपास। उसका बीज निकाल देने पर रूई होती है। उसको पिंजित कर पूणिका के रूप में तैयार करने पर 'पेलु' बन जाती है। यदि मुनि पेलु को दर्प से ग्रहण करता है, बिना कारण ग्रहण करता है तो तप और काल से विशिष्ट चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। कारण में इनको अक्रम से (अर्थात् पहले पेलुक, फिर पिंजित, फिर रूई और फिर सेडुक) ग्रहण करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। (सेडुक तीन वर्षों के पश्चात् विध्वस्तयोनिक हो जाता है।) २९९७.कडजोगि एक्कओ वा, असईए नालबद्धसहिओ वा। निप्फाए उवगरणं, उभओपक्खस्स पाओग्गं॥ (सेडुक आदि लेकर क्या करे?) यदि कोई मुनि कृतयोगी हो (रूई कातना, कपड़ा बुनना आदि जानता हो) वह गच्छ में वस्त्र का अभाव होने पर एकाकी अथवा नालबद्धसंयतीसहित, निर्जन भूभाग में, साधु-साध्वियों के प्रायोग्य वस्त्रों का निष्पादन करे। २९९८.अगीयत्थेसु विगिंचे, जहलाभं सुलभउबहिखेत्तेसु। पच्छित्तं च वहंति, अलंभे तं चेव धारेंति॥ अगीतार्थ मुनि यदि उपधि की सुलभप्राप्ति वाले क्षेत्रों से जो-जो वस्त्रलाभ लेकर आते हैं, उसके आधार पर व्यूतवस्त्र की विगिंचना-परिष्ठापना कर देते हैं। यदि वस्त्र प्राप्त नहीं होता है तो वह स्वयं द्वारा व्यूतवस्त्र को धारण करते हैं, उसका परिभोग करते हैं। २९९९.एमेव य वसिमम्मि वि, झामिय ओम हिय वूढ परिजुन्ने। ____ पुबुट्ठिए व सत्थे, समइच्छंता व ते वा वि॥ इसी प्रकार गांव आदि में रहने वाले मुनियों की उपधि दग्ध हो गई, अवमौदर्य में विक्रीत हो गई, चोरों द्वारा अपहृत हो गइ, पानी में बह गई या परिजीर्ण हो गई-इन सबमें पूर्वोक्त विधि ही माननी चाहिए। यदि गांव में समागत सार्थ सूर्योदय से पूर्व ही प्रस्थान कर देता है, उस सार्थ को, वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450