Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 376
________________ ३०६ उपधिरहित मुनि चलते हुए रात्री में प्राप्त करते हैं, वहां वे रात्री में ही यतनापूर्वक वस्त्र ग्रहण करते हैं। ३०००.सो वि य नत्तं पत्तो, नत्तं चिय चलिउमिच्छइ भयं च। ते वा नत्तं पत्ता, गिण्हिज्ज पए चलिउकामा॥ वह सार्थ भी रात्री में ही गांव में पहंचा। स्तेनों के भय के कारण वह रात्री में ही वहां से आगे जाना चाहता है। वे उपधिरहित साधु भी रात्री में ही गांव में पहुंचे और वे प्रग- सूर्योदय से पूर्व ही वहां से आगे विहरण करना चाहते हैं तो वे सार्थ से रात्री में ही उपधि ग्रहण कर सकते हैं। ३००१.सुत्तेणेव य जोगो, हरियाहडि कप्पए निसिं घेतुं। हरिऊण य आहडिया, छूढा हरिएसु वाऽऽहट्ट॥ सूत्र से ही सूत्र का संबंध है। पूर्वसूत्र में रात्री में वस्त्र- ग्रहण का निषेध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में कहा है-जो हृताहृतिक (या हारिताहृतिक) वस्त्र है, उस रात्री में लेना कल्पता है। पहले वस्त्र का हरण कर पुनः उसे लाना यह हृताहृतिक कहलाता है। अथवा वस्त्र का हरण कर उसे हरित पर प्रक्षिप्त कर दिया वह हरिताहृतिक है। ३००२.अद्धाणमणद्धाणे, व विवित्ताणं तु होज्ज आहडिया। अविहे वसंति खेमे, विहं न गच्छे सइ गुणेसु॥ जो मार्ग में या अमार्ग में लूटे गए हों, उनके लिए हताहतिक होता है। जो अध्वगत नहीं हैं वे निरूपद्रव क्षेत्र में रहते हैं। ज्ञान आदि गुण होने पर मार्ग में प्रवेश न करे अर्थात् विहरण न करे। ३००३.उद्दहरे सुभिक्खे, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेणं। लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवज्जई जत्थ॥ ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष के चार भंग होते हैं(१) ऊर्ध्वदर तथा सुभिक्ष। (२) ऊर्ध्वदर असुभिक्ष। (३) सुभिक्ष न ऊर्ध्वदर। (४) न ऊर्ध्वदर और न सुभिक्ष। इनमें दूसरे और चौथे भंग में अध्वगमन करना चाहिए। पहले और तीसरे भंग में दर्प से कोई अध्वगमन करता है तो शुद्धपद में भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है तथा संयमविराधना आदि होने पर तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ३००४.नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरित्तट्ठा एवमाइ गंतव्वं । उवगरण पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं॥ प्रथम तथा तृतीय भंग में इन कारणों से गमन विहित है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गमन करने वाले जाने वाले तलिकादि उपकरण लेकर जाएं तथा पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाए। =बृहत्कल्पभाष्यम् ३००५.अद्धाण पविसमाणा, गुरुं पवादिति ते गता पुरतो। अह तत्थ न वादेती, चाउम्मासा भवे गुरुगा। प्रस्थान करने से पूर्व अपने गुरु का वृत्तान्त बताते हुए कहते हैं-हमारे आचार्य आगे चले गए हैं, अतः हम भी प्रस्थान कर रहे हैं। यदि यह प्रवाद नहीं कहते हैं तो वे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। ३००६.गुरुसारक्खणहेउं, तम्हा थेरो उ गणधरो होइ। विहरइ य गणाहिवई, अद्धाणे भिक्खुभावेणं॥ गुरु के संरक्षण के लिए स्थविर मुनि गणधर रूप में प्रस्तुत होता है। मार्ग में मूल गणाधिपति एक सामान्य भिक्षु के वेश में विहरण करते हैं। ३००७.हयनायगा न काहिंति उत्तरं राउले गणे वा वि। अम्हं आहिपइस्स व, नायग-मित्ताइएहिं वा॥ अध्वगत मुनियों के वस्त्र लूटने के पश्चात् वे चोर सोचते हैं ये साधु आचार्यरहित हैं, अतः ये राजकुल में या गण में या हमारे नायक के समक्ष या उसके ज्ञातिजनों या मित्रों को जाकर लूटे जाने की शिकायत नहीं करेंगे। ३००८.संजयपंता य तहा, गिहिभद्दा चेव साहुभद्दा य। तदुभयभहा पंता, संजयभद्देसु आहडिया॥ चोर चार प्रकार के होते हैं१. संयतप्रान्त गृहस्थभद्रक ३. उभयभद्रक २. साधुभद्रक गृहस्थप्रान्त ४. उभयप्रान्त। जो संयतभद्रक होते हैं उनसे संबंधित है-हृताहतिका अर्थात् वे वस्त्रों का हरण करके भी पुनः अर्पित कर देते हैं। ३००९.सत्थे विचिच्चमाणे, आहिपई भद्दओ व पंतो वा। भहो दट्टण निवारणं व गहियं व पेसेइ॥ सार्थ को लूटते समय चोराधिपति भद्रक या प्रान्त हो सकता है। जो भद्रक होता है, वह लूटते समय चोरों को यतियों के वस्त्र लूटने का निषेध करता है और यदि वह वहां सन्निहित न हो तो लूटे हुए वस्त्रों को पुनः भेज देता है। ३०१०.नीयं ददृण बहि, छिन्नदसं सिव्वणीहि वा नाउं। पेसे उवालभित्ताण तक्करे भद्दओ अहिवो॥ वह चोराधिपति लूटकर लाए हुए वस्त्रों को देखकर सोचता है इन वस्त्रों के किनारी नहीं है तथा इनकी सीने की विधि भिन्न है। उनको देखकर जान लेता है कि ये वस्त्र साधुओं के हैं। वह अपने साथी चोरों को उपालंभ देता है और वह भद्रक चोराधिपति उन्हीं चोरों को साधुओं के वस्त्रों को अर्पित करने के लिए भेजता है। ३०११.वीसत्थमप्पिणंते, भएण छड्डित्तु केइ वच्चंति। बहिया पासवण उवस्सए व दिम्मि जा जयणा।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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