Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 361
________________ पहला उद्देशक गृहस्थों ने पूछा- क्या कारण है? मुनि बोले- रात्री में भक्तपान जीवों से संसक्त है या नहीं इस प्रकार शुद्धि नहीं होती। तब चांदनी रात थी। गृहस्थ बोले- आज पूर्ण ज्योत्स्ना है तथा दोनों - कूर और कुसण उष्ण हैं । इस काल में यदि चन्द्रमा अभ्रच्छन्न या रजच्छन्न होता तो हमारे पास मणिरत्न है। उसका भी अपूर्व प्रकाश होता है। तथा प्रदीप जल रहा हे अथवा पहले ही ज्योति उन्हील है। २८५८. जोण्हा - मणी पदीवा, उद्दित्त जहन्नगाई ठाणाई । चउगुरुगा छम्गुरुगा, छेओ मूलं जहण्णम्मि ॥ ज्योत्स्ना के प्रकाश में भोजन करने वाले मुनि के चतुर्गुरु, मणि के प्रकाश में षड्गुरु, प्रदीप के प्रकाश में छेद और उद्दीम ज्योति के प्रकाश में मूल ये प्रायश्चित्त स्थान जघन्य हैं। २८५९. भोत्तूण व आगमणं, गुरूहिं बसभेहि कुल गणे संपे आरोवणा कायव्वा, बिइया य अभिक्खगहणेणं ॥ रात्री में ज्योत्स्ना आदि के प्रकाश में भोजन कर मुनि गुरु के पास आए। गुरु ने उन्हें कहा-निशाभक्त का आसेवन करना उचित नहीं है। यदि वे इसे स्वीकार कर लेते हैं तो चतुर्गुरु, स्वीकार न करने पर षड्गुरुक प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार वृषभ, कुल, गण और संघ का कथन स्वीकार करने या न करने पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती रहेगी। ऐसी आरोपणा अर्थात् प्रायश्चित्त वृद्धि करनी चाहिए। द्वितीय है- रात्रिभक्त का पुनः पुनः सेवन करने पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। (वृत्ति में पूरा विवरण है।) २८६०. तिहिं थेरेहिं कथं जं, सहाणे तं तिगं न बोलेइ डिल्ला वि उमरिमे, उवरिमथेरा उ भइयव्वा ॥ (शिष्य ने पूछा-कुल, गण और संघ के स्थविरों के वचन का अतिक्रमण करने पर गुरुतर प्रायश्चित्त की बात क्यों कही गई है? कहा जाता है कि ये तीनों स्थविर आचार्य से भी बड़े होते हैं। ये प्रमाणपुरुष के रूप में स्थापित होते हैं। क्योंकि ये ) कुल, गण और संघ - इन तीनों स्थविरों द्वारा जो कार्य किया गया है, जो निर्णय लिया गया है, वह स्वस्थान में उचित है। तीनों स्थविर उसका परस्पर व्यतिक्रम नहीं करते। इन तीनों में जो नीचे वाला स्थविर कर लेता है, उसका उल्लंघन ऊपर वाले स्थविर नहीं करते। जैसे नीचे वाले हैं कुलस्थविर वे उपरितन स्थविर अर्थात गणस्थविर और संघस्थविरों द्वारा कृत का उल्लंघन नहीं करते। गणस्थविर, संघस्थविरों द्वारा कृत का अतिक्रमण नहीं करते। उपरितन स्थविरों द्वारा कृत की भजना है जैसे- कुलस्थविरों द्वारा अरक्तद्विष्टभाव से Jain Education International २९१ जो किया है उसे गण और संघस्थविर अन्यथा नहीं करते और राग-द्वेष से प्रेरित होकर किया हो तो उसे प्रमाण नहीं मानते। इसी प्रकार गणस्थविरों द्वारा अरक्तद्विष्टभाव से किए हुए का संघस्थविर अन्यथा नहीं करते और राग-द्वेष से किए हुए को प्रमाण नहीं मानते। अतः इन स्थविरों के वचनों का अतिक्रमण करने पर गुरुतर प्रायश्चित्त आता है। २८६१. चंदुज्जोवे को दोसो, अप्पप्पाणे य फासुए दव्वे । भिक्खू वसभाऽऽयरिए, गच्छम्मि य अट्ठ संघाडा ॥ ज्योत्स्ना के प्रकाश में रात्रीभक्त का आसेवन कर आने वाले साधुओं को यदि भिक्षु आदि उनको ऐसा न करने के लिए कहते हैं तो वे कहते हैं ज्योत्स्ना के प्रकाश में प्राणरहित प्रासुक द्रव्य लेने में क्या दोष है ? इस प्रकार कहने पर प्रायश्चित्त आता है और वृषभ, आचार्य, गच्छ अर्थात् कुलस्थविर, गणस्थविर तथा संघस्थविर के कहने पर स्वीकार या अस्वीकार करने पर वह प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है उस प्रायश्चित्त के आठ संघाटक (लता, प्रकार) हो जाते हैं । (वृत्ति में इस वृद्धि को विस्तार से समझाया गया है।) २८६२. सन्नाय आगमणे, संखडि राओ अ भोवणे मूलं । बिए अणवटुप्पो, तइयम्मि य होइ पारंची ॥ संज्ञातक कुल में आगमन कर अथवा संखडी में जाकर यदि मुनि रात्री में भोजन करता है तो उसको मूल प्रायश्चित्त आता है। दूसरी बार रात्री में भोजन करने पर अनवस्थाप्य और तीसरी बार करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। २८६३.जइ वि य फासुगदव्वं, कुंथू - पणगाइ तह वि दुप्पस्सा | पच्चक्खनाणिणो वि हु, राईभत्तं परिहरति ॥ यद्यपि कुछेक द्रव्य प्रासुक हैं परन्तु कुंथु, पनक आदि रात्री में दुर्दर्श होते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी भी रात्रीभक्त का परिहार करते हैं। २८६४. जइ विय पिपीलियाई, दीसंति पईव - जोइउज्जोए । तह वि खलु अणाश्त्रं मूलवयविराहणा जेणं ॥ यद्यपि प्रदीप, ज्योति तथा चन्द्रमा के उद्योत में पिपीलिका आदि जन्तु दृष्टिगोचर हो जाते हैं, फिर भी रात्रीभक्त अनाचीर्ण है क्योंकि यह मूलव्रत महाव्रतों की विराधना है। २८६५. गच्छगहणेण गच्छो, भणाह अहवा कुलाइओ गच्छो । गच्छग्गहणे व कप, गहणं पुण गच्छवासीणं ॥ (गाथा २८६१ में प्रयुक्त 'गच्छम्मि' पद की व्याख्या) गच्छ शब्द के ग्रहण से गच्छ अर्थात् साधु समुदाय । वह रात्रीभक्तप्रतिसेवक साधुओं को कहता है अथवा कुल आदि अर्थात् कुल गण संघ रूप गच्छ वे उन साधुओं को कहते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450