Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 368
________________ २९८ उल्लंघन कर पानक ग्रहण करता है उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २९२४. रातो सिन्जा-संवारगहणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए । रात्री में जो मुनि शय्या संस्तारक ग्रहण करता है, उसे चार उद्घात (लघु) मास का प्रायश्चित्त आता है। आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्मविराधना होती है। २९२५. छक्कायाण विराहण, विराहण, पासवणुच्यारमेव संथारे। पक्खलण खाणु कंटग, विसम दरी वाल गोणे य॥ रात्री में अप्रत्युपेक्षित भूमी में उच्चार- प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करने तथा संस्तारक करने से भी षट्काय विराधना होती है। स्थाणु आदि के कारण प्रस्खलन हो सकता है, पैरों में कांटे लग सकते हैं, निम्नोन्नत भूमी पर या गढ़ों में गिर सकते है, व्याल सर्प का दंश तथा बलीवर्द का अभिघात हो सकता है। २९.२६. एरंडइए साणे, गोम्मिय आरक्खि तेणगा दुविहा एए हवंति दोसा, वेसित्थि - नपुंसएसुं वा ॥ हडकिया पागल कुत्ता काट सकता है, गौल्मिक आरक्षक- रक्षपाल पकड़ लेते हैं, दो प्रकार के स्तेनकों से वह पीडित हो सकता है। रात में शय्या संस्तारक ग्रहण करने से ये दोष होते हैं वेश्यास्त्री तथा नपुंसकों के पांटक में रात्री में शय्या आदि का परिवर्तन करने पर लोगों में अपवाद होता है। २९.२७. सुत्तं निरत्थगं कारणियं, इणमो अद्धाणनिग्गया साहू । मरुगाण कोट्ठगम्मी, पुव्वदिट्ठम्मि संज्झाए | शिष्य ने कहा- यदि ऐसा है तो सूत्र निरर्थक है। आचार्य ने कहा- नहीं, यह कारणिकसूत्र है। अध्वनिर्गत साधु सूर्यास्त की वेला में एक गांव में पहुंचे। वहां उन्होंने ब्राह्मणों का कोष्ठक-अध्ययन कक्ष देखा। उस समय स्वामी वहां नहीं था। संध्या - रात्री में उसके आने पर अनुज्ञा लेकर पूर्वदृष्ट उस कोष्ठक में वे रह जाते हैं। २९२८. दूरे व अन्नगामो, उब्वाया तेण सावय नदी वा । दुल्लभ वसहि ग्गामे, रुक्खाइठियाण समुदाणं ॥ अध्वगत मुनि जहां जाना चाहते थे, वह अन्य ग्राम दूर निकल गया अथवा वे थक गए थे, इसलिए विश्राम करते हु चले चोरों तथा श्वापद का भय था, इसलिए बिना सार्थ आ 2 नहीं पाए या सार्धं विलंब से मिला इसलिए पहुंचने में विलंब हो गया अथवा नदी प्रवाहित हो गई और मध्यवर्ती गांव में Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् गए, वहां वसति दुर्लभ थी अतः वृक्ष आदि के मूल में रहकर सभी सामुदानिक मिक्षा के लिए घूमने लगे। २९२९. कम्मारणंत दारग-कलाय सभ भुज्जमाणि दिय दिला ते गएसु विसंते, जहिं दिट्ठा उभयभोमाई ॥ घूमते हुए उन मुनियों ने ये स्थान देखे कर्मारशाला (लोहकारशाला), नन्तकशाला (जुलाहे की शाला), दारकशाला (पाठशाला), कलादशाला (स्वर्णकारशाला), सभास्थल ये सारे स्थान दिन में उपभोग में आने वाले दृष्टि - गोचर हुए। लोहकार आदि कार्य करने वालों के कार्य पूर्ण हो जाने पर, संध्या समय में उनकी आज्ञा लेकर उन शालाओं में प्रवेश करते हैं। वहां दोनों भूमियांउच्चार और प्रस्रवण भूमियां प्रत्युपेक्षित कर रात्री में वहां रह जाते हैं। २९३०, मझे व देउलाई बाहिं व ठियाण होइ अइगमणं । सावय मक्कोडग तेण वाल मसयाऽयगर साणे ॥ मुनि गांव के मध्य देवकुल में ठहरे हुए हैं या गांव के बाहर मंदिर में ठहरे हैं - उन स्थानों से उनका रात्री में अतिगमन - गांव में प्रवेश होता है, क्योंकि लोग कहते हैं-यहां रहने पर श्वापद, मकोड़ों, चोरों, सर्प, मशक, अजगर, कुत्तों आदि का भय रहता है। इन कारणों से वे गांव में जाते हैं। २९३१ दिवसट्टिया वि रनिं, दोसे मोडगाहए नाउं । अंतो वयंति अन्नं, वसहिं बहिया व अंतो उ॥ देवकुल आदि स्थानों में दिन में रहे और वहां मकोड़ों आदि दोषों को जानकर ग्राम के अन्दर जाए और वहां अन्य वसति में ठहरे, उसके प्राप्त न होने पर बाहरिका में स्थित देवकुल आदि में चले जाते हैं। दिन में वहां रहे और वहां भी वे ही दोष हों तो बाहरिका से गांव के अन्दर आ जाते हैं। २९३२.पुव्वट्ठिए व रत्तिं, दट्ठूण जणो भणाइ मा एत्थं । निवसह इत्थं सावय-तक्करमाइ उ अहिलिति ॥ २९३३. इत्थी नपुंसओ वा, खंधारो आगतो त्ति अइगमणं । गामाशुगामि एहि वि होज्ज विगालो हमेहिं तु ॥ देवकुल आदि में पूर्वस्थित साधुओं को रात्री में देखकर लोग कहते हैं - यहां मत रहो। यहां श्वापद, तस्कर आदि आते हैं। यहां रात्री में स्त्री, नपुंसक तथा स्कंधावार आदि आते हैं। यह सुनकर वे बाहरिका से गांव में प्रवेश करते हैं। ग्रामानुग्राम विहरण करने वाले मुनियों के लिए भी इन कारणों से विकाल रात्री हो सकती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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