Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 360
________________ २९० बृहत्कल्पभाष्यम् कर. उसका परिभोग करने वाले को, रात्रीभोजन का प्रथम ६. जब तक वह भोजन जीर्ण नहीं हो जाता। भंग लगता है। इन सब मतान्तरों को सुनकर आचार्य ने कहा ये सारे २८५१.कारणगहिउव्वरिय आवलियविहीए पुच्छिऊण गओ। अनादेश हैं। सिद्धांत का सद्भाव यह है-जब तक वह मुनि भोक्खं सुए दराइसु, ठवेइ साभिग्गहऽन्नो वा॥ उस क्रिया का प्रायश्चित्त नहीं करता तब तक उसके (उस विभिन्न कारणों से यदि प्रायोग्य द्रव्य अतिरिक्त ले लिया निमित्त से) कर्मबंध होता रहता है। गया और परिभोग के पश्चात् भी वह बच गया हो तो २८५४.संखडिगमणे बीओ, वीयारगयस्स तइयओ होइ। आवलिका विधि-आचाम्ल, उपवास आदि करने वाले मुनियों सन्नायगमण चरिमो, तस्स इमे वन्निया भेदा॥ की परिपाटी से पूछने पर भी यदि बच जाए तो उसको अपराह्न में संखड़ी में जाने से 'द्वितीय भंग' और सूर्योदय परिष्ठापन के लिए वह मुनि गया परंतु उसने सोचा कल मैं से पूर्व बाहर विचार भूमी में गए हुए मुनि द्वारा गृहीत भोज्य इसे खालूंगा। यह सोचकर वह उस द्रव्य को 'दर' (गढ़े) 'तृतीय भंगवर्ती' तथा संज्ञातक कुल में जाकर रात्री में ग्रहण आदि में स्थापित कर देता है। वह मुनि साभिग्रहिक भी हो ___ कर, रात्री में खाने में 'चरम भंग' होता है। चौथे भंग के ये सकता है और अनभिग्रहिक भी हो सकता है। (साभिग्रहिक प्रायश्चित्त भेद वर्णित है। (ये चारों भंग रात्रीभोजन के हैं)। अर्थात् जो कुछ परिष्ठापनायोग्य होता है उसको परिष्ठापित २८५५.गिरिजन्नगमाईसु व, संखडि उक्कोसलंभे बिइओ उ। करने वाला और उससे विपरीत अनभिग्रहिका) अग्गिट्टि मंगलट्ठी, पंथिग-वइगाइसू तइओ॥ २८५२.बिले मूलं गुरुगा वा,अणते गुरु लहुग सेस जं चऽन्नं । गिरियज्ञ आदि संखड़ियों में मुनि गया। सूर्यास्त से पूर्व थेरीय उ निक्खित्ते, पाहुण-साणाइखइए वा॥ उसने वहां से उत्कृष्ट द्रव्य-अवग्राहिम आदि लिए। परंतु २८५३.आरोवणा उ तस्सा, बंधस्स परूवणा य कायव्वा। स्थान पर आते-आते सूर्यास्त हो गया। उसने रात्री में उस कुल नामऽट्ठिगमाउं, मंसाऽजिन्नं न जाऽऽउट्टो॥ द्रव्य का उपभोग किया। यह रात्रीभोजन का द्वितीय भंग है। बिल में स्थापित करने पर मूल प्रायश्चित्त अथवा अग्निष्टिका में पका हुआ मांड अरुणोदय वेला में लेना, चतुर्गुरु, अनन्तवनस्पति के कोटर में स्थापित करने पर सूर्योदय से पूर्व यात्रायित होने के कारण मंगलपाठ सुनने चतुर्गुरु और शेष स्थानों में चतुर्लघु। स्थविरा के घर में रखने वालों से कुछ भोज्य ग्रहण करना, पथिकों से अथवा पर चतुर्लघु और वहां यदि प्राघूर्णक या श्वान आदि के खा जिकाओं-गोकुलों से सूर्योदय से पूर्व कुछ लेना-इनको जाने पर उस स्थापित करने वाले मुनि के आरोपणा लेकर उनका परिभोग करना तीसरा भंग है। प्रायश्चित्त (चतुर्लघु आदि यथायोग्य) आता है। यहां कर्मबंध २८५६.छन्दिय-सयंगयाण व, सन्नायगसंखडीइ वीसरणं। की प्ररूपणा करनी चाहिए। शिष्य ने पूछा-प्राघूर्णक आदि के दिवसे गते संभरणं, खामण कल्लं न इण्हिं ति॥ खा जाने पर कितने काल तक कर्मबंध होता है? कर्मबंध किन्हीं साधुओं के संज्ञातकों के वहां संखडी का उपक्रम विषयक अनेक मत हैं था। उन्होंने साधुओं को निमंत्रित किया। परंतु वे मुनियों को १. प्राघूर्णक के सातवें कुलवंश तक प्रतिसमय उस भूल गए। दिवस के बीतने पर उन्होंने संयतों को याद किया। भोजन को स्थापित करने वाले मुनि के कर्मबंध। वे साधुओं के उपाश्रय में गए और अपनी विस्मृति के लिए होता है। क्षमायाचना की और भक्तपान लेने की प्रार्थना की। मुनियों ने २. जब तक उसका नाम-गोत्र प्रक्षीण नहीं होता। कहा-अभी रात में नहीं, कल देखेंगे/लेंगे। ३. जब तक उसकी हड्डियां रहती हैं। २८५७.संसत्ताइ न सुज्झइ, ४. जब तक वह जीवित रहता है। नणु जोण्हा अवि य दो वि उसिणाई। ५. जब तक उस भोजन से होने वाले मांसोपचय को काले अब्भ रए वा, धारण करता है। मणिदीवुद्दित्तए बेंति॥ १. गिरियज्ञ-इसके तीन अर्थ हैं-गिरियज्ञः कोंकणादिषु भवति उस्सूरे त्ति (१) कोंकण आदि देशों में होने वाला सायंकालभावी भोज। (२) गिरियज्ञ को मत्तबाल संखडी भी कहा जाता है। यह लाटदेश में वर्षारात्र (आश्विन, कार्तिक मास) में होता है। गिरिजन्नो मत्तवाल-संखडी भन्नई, सा लाडविसए वरिसारत्ते भवइ त्ति। (३) भूमिदाह-गिरिकं (ज) न्नत्ति भूमिदाहो त्ति भणितं होइ-(विशेष चूर्णि)। २. दक्षिणापथ में अर्द्धकुडव आटे से प्रभूत मंडक बनाया जाता है। उसे हेमन्त काल में अरुणोदय के समय अग्निष्टिका में पकाकर (गुड़, घी से मिश्रित कर) पथिकों को दिया जाता है। इसे अग्निष्टिका ब्राह्मण भी कहा जाता है। (वृ. पृ. ८०८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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