Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 364
________________ २९४ =बृहत्कल्पभाष्यम् च से अगद-एक द्रव्य से निष्पन्न औषधि तथा एकांगिक जो होती है वह औषधि कहलाती है। अथवा 'च' शब्द से क्षेत्र में, काल में जो दुर्लभ हो वह साथ में ले तथा गच्छ और पुरुष (आचार्य आदि) के लिए जो योग्य हो वह सब साथ २८८५.कोसग नहरक्खट्ठा,हिमा-ऽहि-कंटाइसू उ खपुसादी। कत्ती वि विकरणट्ठा, विवित्त पुढवाइरक्खट्ठा॥ नखों की रक्षा के लिए कोशक, शीत, सर्प तथा कंटक- इनसे बचने के लिए 'खपुस', कृत्ति-चर्म इसलिए लिया जाता हे कि प्रलंब आदि का विकरण करने पर वे धूल के साथ न मिल जाएं तथा कभी-कभी चोर मुनियों के वस्त्रों का अपहरण कर लेते हैं तब मुनि चर्म का परिभोग करते हैं तथा पृथ्वीकाय की रक्षा के लिए चर्म को बिछाकर भोजन करते हैं। या चर्म को बिछाकर बैठते हैं। २८८६.तहिं सिक्कएहिं हिंडति, जत्थ विवित्ता व पल्लिगमणं वा। परलिंगग्गहणम्मि वि, निक्खिवणट्ठा व अन्नत्थ॥ यदि मुनि विविक्त-लूटे जा चुके हैं अथवा चौरपल्ली में भिक्षा के लिए जाना हो तो वे सिक्कक लेकर घूमते हैं। परलिंग में भिक्षार्थ जाते समय सिक्कक में ही घूमना होता है। अध्वकल्प आदि का निक्षेपण सिक्कक में ही किया जाए तथा प्रलंब आदि भी सिक्कक में ही लाकर स्थविरगृह में उनका निक्षेपण किया जाता है। २८८७.जे चेव कारणा सिक्कगस्स ते चेव होंति काए वि। कप्पुवही बालाइ व, वहति तेहिं पलंबे वा॥ सिक्कक के उपयोग के विषय में जो कारण कहे गए हैं, वे ही कारण कापोतिका के विषय में हैं। अध्वकल्प, आचार्य तथा अन्य मुनियों की उपधि, बाल मुनि या प्रलंब आदि का वहन कापोतिका में किया जाता है। २८८८.पिप्पलओ विकरणट्ठा, विवित्त जुन्ने व संधणं सूई। आरि तलिसंधणट्ठा, नक्खच्चण नक्ख-कंटाई॥ पिप्पलक प्रलंब को काटने के लिए, लुटे गए मुनियों के जीर्ण वस्त्रों को सीने के लिए सूची, तलिकों का संधान करने के लिए आरिका, नखार्चन नखों को काटने के लिए तथा कंटक आदि शल्यों को निकालने के लिए काम आता है। २८८९.कोसाऽहि-सल्ल-कंटग, अगदोसहमाइयं तु चग्गहणा। अहवा खेत्ते काले, गच्छे पुरिसे य जं जोग्गं॥ शस्त्रकोश का यह प्रयोजन-सर्प ने जितने अंग को डसा हे उसका छेदन करने के लिए तथा शल्य और कांटों का उद्धरण करने के लिए शस्त्रकोश काम आता है। गाथा २८८३ में चकार का प्रयोग है-'नक्खच्चणि सत्थकोसे या १. शून्यग्राम-वह गांव जो चोरों आदि के भय से उजड़ गया हो। २८९०.एक्वं भरेमि भाणं, अणुकंपा णंदिभाण दरिसंति। निति व तं वइगाइसु, गालिंति दवं तु करएणं॥ कोई श्रावक अध्वगत मुनियों को अनुकंपावश कहता है'मैं प्रतिदिन आपका एक भाजन पूरा भर दूंगा।' तब उसको नन्दीभाजन दिखाते हैं। अथवा उस नन्दीभाजन को जिका आदि में ले जाते हैं तथा धर्मकरक से द्रव अर्थात् पानक गालते हैं। २८९१.परउत्थियउवगरणं, खेत्ते काले य जं तु अविरुद्धं । तं रयणि-पलंबट्ठा, पडिणीए दिया व कोट्टादी। अन्यतीर्थिक के जो उपकरण जिस क्षेत्र और काल में अविरुद्ध होते हैं उसका प्रयोग रात्री में प्रलंब लाने के लिए करना चाहिए। जहां प्रत्यनीक होते हैं अथवा म्लेच्छ कोट्ट (म्लेच्छपल्ली) में जाना होता है, वहां अन्यतीर्थिक के वेष में जाए। २८९२.गोरसभाविय पोत्ते, पुव्वकय दवस्सऽसंभवे धोवे। असईय उ गुलिय मिए, सुन्ने नवरंगदइयादी॥ खोल का अर्थ है-गोरस से भावित वस्त्र। अध्वगत मुनि पूर्वकृत खोल साथ में लेते हैं और जहां प्रासुक द्रव की प्राप्ति नहीं होती तब वे उन खोल-वस्त्रों को धोते हैं। वह द्रव प्रासुक हो जाता है। खोल न होने पर 'गुलिका'तुवरवृक्ष के चूर्ण से निर्मित गुटिका से पानक को प्रासुक बना लेते हैं और मृग अर्थात् अगीतार्थ मुनियों को कहते हैं-शून्यग्राम से नवरंगदृतिका से यह पानक लाया गया है। २८९३.एक्केक्कम्मि य ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए।। अध्वनिर्गत मुनि यदि पूर्वोक्त उपकरणों को साथ नहीं लेता है तो प्रत्येक उपकरण के लिए चार अनुद्धात (गुरु) मास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष और संयमविराधना तथा आत्मविराधना दोनों होती हैं। २८९४.एमाइ अणागयदोसरक्खणट्ठा अगेण्हणे गुरुगा। अणुकूले निग्गमओ, पत्ता सत्थस्स सउणेणं॥ इस प्रकार के अनागतदोषों की रक्षा के लिए उन उपकरणों का ग्रहण करना चाहिए। ग्रहण न करने पर प्रत्येक उपकरण के लिए चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त है। चन्द्रबल, ताराबल, अनुकूल होने पर निर्गमक-प्रस्थान करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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