Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 332
________________ २६२ = बृहत्कल्पभाष्यम् जिस उपाश्रय से निकट रहता है, वह प्रतिबद्ध कहलाता है। २५८८.आसज्ज निसीही वा, वहां निग्रंथों को नहीं रहना चाहिए। सन्झाय न करिति मा हु बुज्झिज्जा। २५८४.नाम ठवणा दविए, भावम्मि चउव्विहो उ पडिबद्धो। तेणासंका लग्गण, दव्वम्मि पट्ठिवंसो, भावम्मि चउव्विहो भेदो॥ संजम आयाए भाणादी॥ प्रतिबद्ध चार प्रकार का है-नामप्रतिबद्ध, स्थापना- अधिकरण के भय से मौन रहने पर ये दोष होते हैं-मुनि प्रतिबद्ध, द्रव्यप्रतिबद्ध और भावप्रतिबद्ध। द्रव्यतः प्रतिबद्ध है यह सोचे कि हमारे शब्दों से गृहस्थ जाग न जाएं, इसलिए वे पृष्ठवंश अर्थात् जो उपाश्रय गृहस्थ के घर से संबद्ध होता है आसज्ज-शब्दों का उच्चारण नहीं करते, आवश्यिकी आदि वह द्रव्यप्रतिबद्ध है। भावप्रतिबद्ध चार प्रकार का होता है। नहीं करते, स्वाध्याय नहीं करते-इनमें सूत्रपरिहानि होती है। २५८५.पासवण ठाण रूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि।। गृहस्थ जागकर उसे चोर मानकर उसको पकड़ लेते हैं। दव्वेण य भावेण य, संजोगो होइ चउभंगो॥ परस्पर कलह से संयमविराधना और आत्मविराधना होती है भावप्रतिबद्ध के ये चार प्रकार होते हैं-प्रस्रवण, स्थान, तथा भाजनविराधना होती है। इसलिए द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय रूप और शब्द।' द्रव्य और भाव प्रतिबद्ध के आधार पर में नहीं रहना चाहिए। चतुर्भंगी होती है २५८९.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। (१) द्रव्यतः प्रतिबद्ध भावतः नहीं। गीयत्था जयणाए, बसंति तो दव्वपडिबद्धे ।। (२) भावतः प्रतिबद्ध द्रव्यतः नहीं। जो अध्वनिर्गत हैं, उन्हें तीन बार गवेषणा करने पर भी (३) दोनों से प्रतिबद्ध। अप्रतिबद्ध उपाश्रय प्राप्त नहीं होता तो गातीर्थ मुनि (४) दोनों से प्रतिबद्ध नहीं। यतनापूर्वक द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय में रह सकते हैं। २५८६.चउत्थपदं तु विदिन्नं, दव्वे लहुगा य दोस आणादी। २५९०.आपुच्छण आवासिय, संसद्देण विबुद्धे, अहिकरणं सुत्तपरिहाणी॥ आसज्ज निसीहिया य जयणाए। चतुर्थपद वितीर्ण-अनुज्ञात है। ऐसे प्रतिश्रय में रहा जा वेरत्ती आवासग, सकता है। द्रव्यतः प्रतिबद्ध प्रतिश्रय में रहने पर चतुर्लघु का जो जाहे चिंधण दुगम्मि॥ प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। साधुओं के यतना यह है-यदि कोई मुनि कायिकीभूमी में जाना चाहे आवश्यिकी-नैषधिकी शब्दों से जाग कर गृहस्थ अधिकरण तो वह दूसरे साधु को पूछ कर जाए। आवश्यिकी और में लग जाते हैं। इससे सूत्र की परिहानि होती है। नैषधिकी के शब्दों का यतनापूर्वक उच्चारण करे। वैरात्रिकी २५८७.आउ ज्जोवण वणिए, वेला का ग्रहण, आवश्यक करना आदि जो जहां स्थित हो अगणि कुटुंबी कुकम्म कुम्मरिए। वहीं करे। यदि स्वाध्याय करते समय सूत्र और अर्थ-दोनों के तेणे मालागारे, विषय में शंका होने पर रात्री में विचार विमर्श न करे दिन में उन्भामग पंथिए जंते॥ परामर्श कर समाधान पाले। साधुओं तथा गृहस्थों के शब्दों को सुनकर स्त्रियां जाग २५९१.जणरहिए वुज्जाणे, जयणा भासाए किमुय पडिबद्धे। जाती हैं और वे पानी लाने चल पड़ती हैं। रथकार बैलों को ढड्डरसऽणुप्पेहा, न य संघाडेण वेरत्ती। रथों में जोत कर काम पर चले जाते हैं। वणिक् माल बेचने जनरहित उद्यान में रहने वाले मुनि को भाषा विषयक ग्रामान्तर चल पड़ते हैं। लोहकार अग्नि जला कर अपना । यतना करनी चाहिए-इतने जोर से न बोले कि पशु-पक्षी काम करने लगते हैं। कौटुंबिक-कृषक खेतों में जाते हैं। भयभीत होकर व्याकुल हो जाएं। तो फिर द्रव्यप्रतिबद्ध कुकर्म अर्थात् मत्स्यमार आदि मछलियों को पकड़ने चलते उपाश्रय की तो बात ही क्या? ढड्डर स्वर वाला मुनि जोरहैं। कुमारक कसाई अपने काम में लग जाते हैं। चोर और जोर से स्वाध्याय न करे, अनुप्रेक्षा करे-मन से स्वाध्याय मालाकार तथा उद्भ्रामक व्यक्ति, पथिक तथा यांत्रिक अपनी करे। मिलजुल कर स्वाध्याय न करे। एक-एक मुनि धीमे प्रवृत्ति में संलग्न हो जाते हैं। स्वरों में स्वाध्याय करे। १. जहां स्त्रियां और साधुओं के कायिकी भूमी एक ही होती है वह है। जहां से स्त्रियों के भाषा, भूषण, रहस्यशब्द सुनाई देते हैं वह प्रस्रवणप्रतिबद्ध है। जहां दोनों का एक ही बैठने का स्थान होता है, वह शब्दप्रतिबद्ध है। (वृ. प. ७२७) स्थानप्रतिबद्ध है। जहां से स्त्रियों का रूप दिखता है वह रूपप्रतिबद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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