Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 338
________________ २६८ ==बृहत्कल्पभाष्यम् मालोपरि-स्थित शाला आदि में रहने से ये ही दोष सविशेष तो घरवाले मानेंगे कि कोई चोर आ गया है अथवा कोई होते हैं। उद्भ्रामक होगा। २६४४.दुरुहंत ओरुभंते, हिट्ठठियाण अचियत्त रेणू य। २६४९.मज्जणविहिमज्जंतं, दुदु सगारं सईकरणमादी। संकाय संकुडते, पडणा भत्ते य पाणे य॥ सिज्जायरीउ अम्ह वि, एरिसया आसि गेहेसु॥ ऊपर चढ़ते-उतरते हुए मुनि के चरणों से रेणु नीचे बैठे २६५०.तासिं कुचोरु-जघणाइदसणे खिप्पऽइक्कमो कीवे। व्यक्तियों पर गिरती हैं। उससे उनके मन में अप्रीति होती है। इत्थीनाइ-सहीण य, अचियत्तं छेदमाईया।। वह संकोचवश अपने शरीर को संकुचित करता हुआ चढ़ता- मज्जनविधि स्नान की महती प्रक्रिया से स्नान करते हुए उतरता है। वह नीचे गिर सकता है। भक्त-पान गिरकर सागारिक को देखकर स्वयं की पूर्व स्मृति उभर आती है। जमीन पर बिखर जाते हैं। शय्यातरी को स्नान करते देखकर मुनि के मन में आता है २६४५.उव्वरए वलभीइ व, अंतो अन्नत्थ वा वसंताणं। कि हमारे गृहवास में भी ऐसा ही होता था। स्नान करती हुई ते चेव तत्थ दोसा, सविसेसतरा इमे अन्ने॥ शय्यातरी के कुच, उरु, जघन आदि देखकर दर्शन क्लीब अपवरक, वलभी अथवा अन्यत्र गृहमध्य के मध्य रहने मुनि के शीघ्र ही अतिक्रम-ब्रह्मव्रत की विराधना हो जाती है। से वे सारे दोष हैं जो शाला में रहने से होते हैं। वे तथा ये उसी स्त्री के ज्ञातीजन, सुहृद्जन के मन में अप्रीति उत्पन्न अन्य दोष भी होते हैं। होती है। वे तब मुनि को दिए जाने वाले द्रव्यों का व्यवच्छेद २६४६.अइगमणमणाभोगे, ओभासण मज्जणे हिरन्ने य। कर देते हैं। ते चेव तत्थ दोसा, सालाए छिंडिमज्झे य॥ २६५१.आसंकितो व वासो, दुक्खं तरुणा य सन्नियत्तेउ। गृहमध्य में रहने से दूसरे अपवरक में अनायास धंतं पि दुब्बलासो, खुब्भइ वलवाण मज्झम्मि॥ अतिगमन-प्रवेश हो सकता है। वहां महिला अचानक मुनि सदा उनका वहां वास आशंकित होता है। जो मुनि तरुण को प्रविष्ट हुआ देखकर उसका अपमान कर सकती है। कोई हैं, उनको स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों को देखने की आसक्ति से स्नान आदि कर रहा हो वहां हिरण्य या भोजन आदि बिखरा मोड़ना अत्यंत कष्टप्रद होता है। जैसे अत्यंत दुर्बल अश्व भी हुआ हो, यह देखकर किसी मुनि की आकांक्षा हो सकती है। वडवाओं के मध्य रहता हुआ क्षुब्ध हो ही जाता है। ये विशेषदोष होते हैं। शाला तथा छिन्दिका विषयक जो दोष २६५२.तत्थ उ हिरण्णमाई, संमतओ दट्ट विप्पकिन्नाई। कहे हैं, वे तो होते ही हैं। लोभा हरेज्ज कोई, अन्नेण हिए व संकेज्जा। २६४७.उभयट्ठाय विणिग्गए, अइंति सं पई ति मन्नएऽगारी। वहां शाला आदि में चारों ओर चांदी-सोना आदि को अणुचियघरप्पवेसे, पडणा-ऽऽवडणे य कुइयादी॥ बिखरा हुआ देखकर कोई मुनि लोभवश उसका अपहरण कर कोई मुनि रात्री में कायिकी या संज्ञा के व्युत्सर्ग के लिए लेता है और उत्प्रवजित हो जाता है अथवा कोई दूसरा बाहर जाता है, लौटते समय वह अन्य कमरे में घुस जाता उसका अपहरण कर लेने पर भी मुनियों पर आशंका हो है। वहां कोई स्त्री सोई रहती है। वह उसे अपना पति मान सकती है। लेती है। इससे अनर्थ होता है। अज्ञात गृह में प्रवेश करने पर २६५३.छिंडीइ पच्चवातो, तणपुंज-पलाल-गुम्म-उक्कुरुडे। वहां स्तंभ आदि से टकरा कर गिर सकता है। वहां यदि कोई मिच्छत्ते संकादी, पसज्जणा जाव चरिमपदं।। स्त्री आदि हो तो वह जोर से चिल्लाती है। उस स्थिति में छिंडिका में रहने से ये दोष हैं। उस पुरोहड में तृणपुंज, प्रवचन का उड्डाह होता है। साधु का निष्काशन आदि हो पलालपुंज, गुल्म, ईंट-काठ आदि का पुंज होता है। वहां रहने सकता है। पर नवप्रव्रजित को मिथ्यात्व आ सकता है। उसे अनेक २६४८.अट्ठिगिमणट्ठिगी वा, उड्डाहं कुणइ सव्वनिच्छुभणं। प्रकार की शंका आदि हो सकती है। उसकी पसज्जना तेणुब्भामे मन्नइ, गिहिआवडिओ व छिक्को वा॥ भोजिक, घाटिक आदि को निवेदन करने पर चरम पद अर्थात् कोई महिला मैथुनार्थी होकर मुनि से भोग की याचनापारांचिक प्रायश्चित्त आ सकता है। करती है अथवा मुनि मैथुनार्थी होकर भोग की याचना करता २६५४.एक्कतरे पुव्वगते, आउभए गभीर गुम्ममादीसु। है-दोनों ओर से प्रवचन का उड्डाह होता है। मुनियों का अह तत्थेव उवस्सओ, निरोहऽसज्झाय उड्डाहो। निष्काशन कर देते हैं। वह मुनि उस अपवरक में घुसा, किसी उस गुल्म-तृण पुंज आदि से गभीर-गहन पुरोहड में स्त्री से टकरा गया, गिर पड़ा, हाथ आदि से स्पर्श कर दिया पहले मुनि गया है और फिर कोई स्त्री गई है या पहले स्त्री अहत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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