Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 352
________________ २८२ २७७७ उहावण निव्विसए एनमणेगे पओस पारंची। अणवटुप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ ॥ अन्य राज्य की सीमा में चोरी से प्रवेश करते हुए साधु को देखकर यदि आरक्षक उसे पकड़ ले तो चतुर्गुरुक, आकर्षण करने पर षड्गुरुमास, व्यवहार न्यायपालिका में ले जाने पर छेद, व्यवहार में यदि वह पश्चात्कृत - पराजित हो जाता है तो मूल, चौराहे पर उसकी उद्दा- भर्त्सन होने पर तथा व्यंगन हाथ-पैर आदि काटे जाने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। राजा द्वारा अपद्रावित या देशनिष्काशन दिए जाने पर अथवा एक साधु के अपराध पर अनेक साधुओं पर प्रद्विष्ट हो जाने पर पारांचिक तथा उद्दहन और व्यंगन दोनों करने पर अनवस्थाप्य तथा अपद्रावण और निर्विषयी दोनों करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। २७७८. एमेव सेसएहि वि, चोराईहि समगं तु वच्यते । सविसेसयरा बोसा पत्थारो जाव भंसणया ॥ इसी प्रकार चोर-प्रतिचरक आदि शेष सहायकों के साथ जाने पर भी वे ही दोष होते हैं। सविशेष यह होता है कि उन साधुओं के दोष से कुल, गण, संघ का प्रस्तार होता हैउनका ग्रहण आकर्षण होता है तथा जीवितव्य और चारित्र की भ्रंसना भी हो सकती है। । २७७९. ते डुम्मि पसज्जण, निस्संकिए मूल अहिमरे चरिमं जइ ताव होंति भद्दय, दोसा ते तं चिमं चऽन्नं ॥ चोरों के साथ जाने पर चोरी आदि करता है, कराता है। या अनुसंधान करता है, यह प्रसज्जना है। यह स्तेन है यह आशंका होने पर चतुर्गुरु, निःशंकित होने पर 'मूल' और यह 'अभिमर' है, यह होने पर चरम प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि स्थानपालक भद्र होते हैं, उनके द्वारा विसर्जित और परराष्ट्र में प्रविष्ट साधुओं के लिए वे ही दोष होते हैं तथा ये अन्य दोष भी होते हैं। २७८०. आयरिय उवज्झाया, कुल गण संघो य चेहयाई च सव्ये वि परिच्चत्ता, वेरज्जं संकमंतेणं ॥ वेराज्य में संक्रमण करने वाला मुनि, आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण, संघ और चैत्य - इन सबको परित्यक्त कर देता है। २७८१. किं आगय त्थ ते बिंति संति णे इत्थ आयरियमादी | उग्घाएमो रुक्खे, मा एंतु फलत्थिणो सउणा ॥ वहां जाने पर राजपुरुष साधुओं को पूछते हैं - यहां क्यों आए हैं ? वे कहते हैं-'यहां हमारे आचार्य आदि हैं।' तब राजपुरुष कहते हैं-फलार्थी पक्षी वृक्षों के पास आते हैं। इसलिए हम उन वृक्षों को ही उखाड़ देते हैं, जिससे कि पक्षी Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् वहां न आए। ( इसी प्रकार हम उन आचार्य आदि का ही विनाश कर देते हैं कि उनके पास कोई न आए।) २७८२. एयारिसे विहारो, न कप्पई समणसुविहियाणं तु । दो सीमेऽइक्कमई, जिणसीमं रायसीमं च॥ अतः सुविहित श्रमणों का ऐसे वैराज्य - विरुद्धराज्य में विहार नहीं कल्पता । वहां जाने वाला मुनि दो सीमाओं का अतिक्रमण करता है - जिनसीमा और राजसीमा । २७८३. बंधं वहं च घोरं आवज्जह एरिसे विहरमाणो । तम्हा उ विवज्जेज्जा, वेरज्ज - विरुद्धसंकमणं ॥ वैराज्य विरुद्ध राज्य में गमनागमन का विवर्जन करे, क्योंकि वहां जाने पर घोर बंधन तथा वध आदि की प्राप्ति हो सकती है। २७८४. दंसण नाणे माता, भत्तविसोही गिलाणमायरिए । अधिकरण वाद वाद राय कुलसंगते कप्पई गंतुं ॥ अपवाद स्वरूप वहां जाया जा सकता है। ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति के लिए, माता-पिता को संबोध देने के लिए, किसी भक्त प्रत्याख्यान करने वाले साधु की विशोधि के लिए, ग्लान की परिचर्या के लिए, आचार्य के आदेश से अधिकरण के उपशमन के लिए, बाद करने के लिए, द्विष्ट राजा को उपशांत करने के लिए कुल गण संघ के कार्य के लिए उस राज्य में जाना कल्पता है। , २७८५. सुत्तत्तदुभयविसारयम्मि पडिवन्न उत्तिमम्मि । एतारिसम्मि कप्पा, वेरज्ज- विरुद्धसंकमणं ।। वैराज्य विरुद्ध राज्य में कोई आचार्य सूत्र, अर्थ और तदुभय में विशारद हैं। उन्होंने अनशन को स्वीकार कर लिया है। उनसे सूत्रार्थ का ज्ञान लेने के लिए उस राज्य में संक्रमण करना कल्पता है। २७८६. आपुच्छि आरक्खिय सेडि सेणावई - अमच्य राईणं । अइगमणे निग्गमणे, एस विही होइ नायव्वो । परराज्य में अतिगमन- प्रवेश और निर्गमन की यह विधि हे साधु पहले आरक्षिक को पूछे। अनुज्ञा न मिलने पर क्रमशः इनको पूछे - श्रेष्ठी, सेनापति, अमात्य और राजा । २७८७, आरक्खितो विसज्जइ, अव भणिज्जा स पुच्छह तु सेट्ठि । जव निवोता नेयं, मुद्दा पुरिसो व दूतेणं ॥ आरक्षिक को पूछने पर यदि वह विसर्जित करता है, अनुज्ञा देता है तो ठीक है अथवा वह यह कहे श्रेष्ठी को पूछो तो श्रेष्ठी को पूछना चाहिए। इसी प्रकार यावत् राजा को पूछना चाहिए । राजा की आज्ञा मिलने पर मुद्रापट्टक और दूतपुरुष को साथ भेजने की मांग करनी चाहिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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