Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 304
________________ २३४ बृहत्कल्पभाष्यम् तेसिंह, २३०६.दटुं विउव्वियाओ, कुलडा धुत्तेहिं संपरिवुडाओ। बिब्बोय-पहसियाओ, आलिंगणमाइया मोहो॥ इसी प्रकार अलंकृत और धूर्तों से सपरिवृत कुलटाओं- वेश्याओं जो बिल्बोक और प्रहसितयुक्त हैं तथा उनके द्वारा किए जाने वाले आलिंगन आदि को देखकर मोह का उदय हो सकता है। २३०७.तत्थ चउरंतमादी, इब्भविवाहेसु वित्थरा रइया। भूसियसयणसमागम, रह-आसादीय निव्वहणा। वहां आपणगृह आदि में स्थित साध्वियां धनी व्यक्तियों के विवाह विस्तर में रचित चतुरंत अर्थात् चतुरिका तथा वंदन, कलश, तोरण आदि को देखकर, तथा वहां विवाह में सम्मिलित होने वाले वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर आने वाले स्वजनों को देखती हैं तथा वधू को रथ, अश्व, शिविका आदि से निर्वहण-श्वसुरगृह में ले जाते देखकर भुक्तभोगिनी साध्वियों के मोहोदय होता है और वे संयमपथ से च्युत हो जाती हैं। २३०८.बलसमुदयेण महया, छत्तसिया वियणि-मंगलपुरोगा। दीसंति रायमादी, तत्थ अतिता य निंता य॥ वे साध्वियां सफेद छत्र धारण किए हुए राजा आदि को महान् सेना के साथ नगर में प्रवेश करते हुए या निर्गमन करते हुए देखती हैं। राजा के आगे-आगे चामर तथा दर्पण, पताका आदि को लेकर अन्य कर्मकर चलते हैं। २३०९.ते नक्खि -वालि-मुहवासि जंघिणो दिस्स अट्ठियाऽणट्ठी। होसुंणे एरिसगा, न य पत्ता एरिसा इतरी॥ अन्यान्य उन्नत और स्निग्ध नखवाले, श्यामल केशवाले, सुवासित मुखवाले, सुरूप जंघावाले, पुरुष जो मैथुनार्थी हैं या स्वाभाविकरूप से वहां आए हैं, उनको देखकर भुक्तभोगिनी साध्वियां सोचती हैं हमारे पति भी ऐसे ही थे। कई सोचती हैं, हमें ऐसे पति प्राप्त नहीं हुए थे। ये दोष उत्पन्न होते हैं। २३१०.एयारिसए मोत्तुं, एरिसयविवाहिता य सइ भुत्ते। इयरीण कोउहल्लं, निदाण-गमणादयो सज्जं॥ पूर्वावस्था में भुक्तभोगिनी संयतियां सोचती हैं-इन सदृश पतियों को छोड़कर हमने दीक्षा ग्रहण की है, इनके सदृश तरुणों से हम भी विवाहिता थीं-इस प्रकार पूर्व की स्मृति होती हैं। अभुक्तभोगिनियों संयतियों के मन में कुतूहल होता है। उस अवस्था में दोनों के निदान हो सकता है अथवा पुनः गृहवास की ओर लौटना हो सकता है। २३११.आयाणनिरुद्धाओ, अकम्मसुकुमालविग्गहधरीओ। तेसिं पि होइ दटुं, वइणीओ समुब्भवो मोहे॥ उन श्रमणियों की इन्द्रियां निरुद्ध होती हैं तथा क्रिया न करने के कारण सुकुमार शरीरवाली उन श्रमणियां को देखकर उन तरुणों के मन में भी मोह का उदय होता है। २३१२.संजमविराहणा खलु, इच्छाए अणिच्छयं व बहि गिण्हे। तेणोवहिनिप्फन्ना, सोही मूलाइ जा चरिमं॥ यदि तत्रस्थित श्रमणियां उन तरुणों की वांछा करती हैं तो संयम की विराधना होती है। यदि वांछा नहीं करती हैं तो श्रमणियों को बाहर खींच लाते हैं। एकांत में स्थित उन श्रमणियों की उपधि स्तेन चुरा लेते हैं। उससे प्रायश्चित्त निष्पन्न होता है। संयती का अपहरण हो जाने पर आचार्य को मूल आदि चरम प्रायश्चित्त आता है। २३१३.ओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थि-खंडरक्खाणं। उद्धंसणा पवयणे, चरित्तभासुंडणा सज्जो॥ वहां रहने वाली श्रमणियों के कुलगृह का तिरस्कार होता है। आपणगृह आदि वेश्यास्त्रियों का और आरक्षिकों का स्थान होता है। उससे प्रवचन की हीनता होती है तथा सद्य चारित्र से परिभ्रंशना होती है। २३१४.ससिपाया वि ससंका, जासिं गायाणि सन्निसेविंस। ___ कुलफुसणीउ ता भे, दोन्नि वि पक्खे विधंसिंति॥ आपणगृहों में स्थित साध्वियों को देखकर कोई ज्ञातिजन उनके कुटुंबियों को जाकर कहता है-आपके पुत्रियों और पुत्रवधूओं के कोमल शरीर को चन्द्रमा की किरणें सशंक होकर स्पर्श करती थीं, वे अभी आपणगृह में रह रही हैं। इस प्रकार के निवास से वे आपके कुल को कलंकित करने वाली तथा दोनों पक्षों को-पैतृक पक्ष और श्वसुर पक्ष का विध्वंस करने वाली हैं। २३१५.छिन्नाइबाहिराणं, तं ठाणं जत्थ ता परिवसंति। इय सोउं दट्ठण व, सयं तु ता गेहमाणिंति॥ जहां वे रहती हैं वह छिन्नाल, वेश्या, खंडरक्ष आदि शिष्टव्यक्तियों से बाह्यभूत जनों के लिए है। यह सुनकर, देखकर ज्ञातिजन अपनी संबंधिनी साध्वी को घर ले आते हैं। २३१६.पेच्छह गरहियवासा, वइणीउ तवोवणं किर सियाओ। किं मन्ने एरिसओ, धम्मोऽयं सत्थगरिहा य॥ २३१७.साहूणं पि य गरिहा, तप्पक्खीणं च दुज्जणो हसइ। अभिमुहपुणरावत्ती, वच्चंति कुलप्पसूयाओ। वहां स्थित साध्वियों को देखकर कोई कहता है-देखो! Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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