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पहला उद्देशक
२१६०, पहरण जाणसमग्गो, सावरणो वि ह छलिज्जई जोहो । वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्यो वि किं गाहो । जैसे युद्धस्थल में शस्त्रों तथा वाहन आदि से सुसज्जित तथा कवच आदि से सुरक्षित योद्धा भी क्या शत्रु योद्धा से नहीं छला जाता ? किन्तु छला जाता है, मारा जाता है। क्या औषधियों से युक्त ग्राह- गारुडिक दुष्ट सर्प से नहीं छला जाता ? छला जाता है। वैसे ही मुनिचर्या में संलग्न मुनि भी स्त्रीदर्शन आदि से मोहग्रस्त होकर छला जाता है।
२१६१. उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवितं न उज्जलइ ।
अइइद्धो वि न सक्कर, विनिव्ववेउं कुडजलेणं ॥ एक व्यक्ति के हाथ में पानी से भरा हुआ पड़ा है। फिर भी क्या अग्नि से प्रज्वलित गृह नहीं जलेगा ? अतिदीप्स वह अग्नि एक घड़े पानी से नहीं बुझ पाएगी। २१६२. ढासंपत्ती व हु, न खमा संदेहियम्मि अत्थम्मि ।
नायकए पुण अत्थे, जा वि विवत्ती स निहोसा ॥ जिस अर्थ प्रयोजन की निष्पत्ति संदेहास्पद हो, वहां ढा-यथेष्ट संपत्ति भी श्रेयस्कर नहीं होती । प्रस्तुत प्रसंग में संयतीक्षेत्र में जाना अश्रेयस्कर होता है वहां जाने का प्रयोजन संदिग्ध है, अतः वहां जाना श्रेयस्कर नहीं हो सकता अर्थ प्रयोजन निर्दोष रूप से ज्ञात हो और वहां कोई विपत्ति भी आ जाए तो वह निर्दोष ही मानी जाती है। २१६३. दूरेण संजईओ, अस्संजइआहि उबहिमाहारो ।
जह मेलणाए दोसो, तम्हा रनम्मि बसियव्वं ॥ शिष्य ने कहा- दूर अर्थात् पृथग् वसति में रहने वाली साध्वियों का परिहार किया जा सकता है। परंतु गृहणियों के संसर्ग का परित्याग नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनसे ही उपधि और आहार की प्राप्ति होती है। यदि संसर्ग का ही दोष है तो मुनियों को अरण्य में वास करना चाहिए । २१६४. रत्रे वि तिरिक्खीतो, परिन्न दोसा असंतती यावि
लब्भीय कूलवालो, गुणमगुणं किं व सगडाली ॥ आचार्य बोले- वत्स! अरण्य में भी तियंच स्त्रियां रहती हैं। परिज्ञा- भक्तप्रत्याख्यान के दोष होते हैं। प्रव्राजना के अभाव में शिष्य प्रशिष्य आदि नहीं होते। कूलबाल अरण्य में रहता हुआ कौन से गुण को प्राप्त किया? शाकटालि-स्थूलभद्रस्वामी गणिका के घर में रहता हुआ भी कौन से अगुण का प्राप्त कर डाला ? २१६५. करसह विवित्तवासे, विराहणा दुन्नए अभेदो वा । जह सगडालि मणो वा तह बिइओ किं न रुंभिसु ॥
१. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ७१ ।
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किसी-किसी मुनि के एकान्तवास में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य की विराधना हो जाती है और किसी के दुर्नय-स्त्रीसंसक्त प्रतिश्रय में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का भेद नहीं होता। जैसे शाकटालि-स्थूलभद्रस्वामी ने स्त्रीसंसर्ग में रहते हुए भी अपने मन का निरोध किया, वैसे द्वितीय - सिंहगुफावासी मन का निरोध क्यों नहीं कर सका ?
२१६६. होज्ज न वा वि पभुत्तं, दोसाययणेसु वट्टमाणस्स । चूयफलदोसवरिसी चूयच्छायं पि बज्जेइ ॥ दोष लगने के स्थानों में भी रहते हुए किसी का मन के निरोध में सामर्थ्य हो या न हो, फिर भी उन स्थानों का वर्जन करना चाहिए। जैसे आम्रफल के भक्षण में दोष देखने वाला आम्र की छाया का भी वर्जन करता है।
२१६७. इत्थीणं परिवाडी, कायव्वा होइ आणुपुव्वीए ।
परिवाडीए गमणं, दोसा य सपक्खमुप्पन्ना ॥ स्त्रियों (तिर्यंच स्त्रियों) की परिपाटी, आनुपूर्वी से करनी चाहिए । परिपाटी में गमन । दोष स्वपक्ष से उत्पन्न होते हैं। (इसका विस्तृत अर्थ आगे ।)
२१६८. एगखुर- दुखुर - गंडी - सणप्फइत्थीसु चेव परिवाडी ।
बद्धाण चरंतीणं, जत्थ भवे वग्गवग्गेसु ॥ २१६९. तत्थऽन्नतमो मुक्को, सजाइमेव परिधावई पुरिसो । पासगए वि विवक्खे, चरइ सपक्खं अवेक्खतो ॥ एक खुरा घोड़ी आदि विखुरा- गाय, भैंस आदि, गंडीपदा - हथिनी आदि, सनखपदा-कुत्ती आदि ये सब पृथक्-पृथक् समूह में बंधी हुई हैं अथवा चर रही हैं, वहां इनमें से किसी पशुजाति के पुरुष को मुक्त किया जाए तो वह इन सबमें से स्वजाति की स्त्री के पास ही जाएगा। विपक्ष की पशुस्वी के पार्श्वस्थित होने पर भी वह पशुपुरुष स्वपक्ष स्त्री की अपेक्षा रखता हुआ चरता है, परन्तु विपक्ष पशुस्त्री की ओर नहीं दौड़ता । ( इसी प्रकार श्रमण भी श्रमणियों से निःशंक होकर संसर्ग करता है, गृहिणियों से नहीं।)
२१७०. आगंतुयदव्वविभूसियं च ओरालियं सरीरं तु ।
असमंजसो उ तम्हाऽगारित्विसमागमो जइणो ॥ स्त्रियों के शरीर आगंतुकद्रव्य अर्थात् वस्त्र, आभूषण आदि से अलंकृत होता है तथा वह औदारिक होता है अर्थात् स्नान, विलेपन आदि परिकर्म से रूपातिशय वाला होता है, अतः मुनियों का उन गृहिणी स्त्रियों के साथ समागम असमंजसवाला होता है।
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