Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 296
________________ -बृहत्कल्पभाष्यम् २२६ २२१५.तुब्भे गिण्हह भिक्खं, इमम्मि पउरन्न-पाण गामद्धे। वाडग साहीए वा, अम्हे सेसेसु घेच्छामो॥ साध्वियां कहती हैं-प्रचुर अन्न-पान वाले इस ग्रामार्द्ध में आप भिक्षा ले लें और उस ग्रामार्द्ध में हम भिक्षा ग्रहण करेंगी। अथवा इस पाटक में या इस गली में आप भिक्षा ग्रहण कर लें, हम शेष घरों में भिक्षा ग्रहण कर लेंगे। २२१६.ओली निवेसणे वा, वज्जेत्तु अडंति जत्थ व पविट्ठा। ___ न य वंदणं न नमणं, न य संभासो न वि य दिट्ठी॥ अथवा ओली-गांव के गृहों की एक पंक्ति या निवेशन में जहां साध्वियां भिक्षा के लिए जाती हैं उसको छोड़कर साधु अन्य ओली या निवेशन में भिक्षा करे। ऐसी स्थिति में भी जहां दोनों साधु-साध्वी का मिलन हो तो न वंदना, न नमन, न संभाषण और न एक दूसरे को देखे।। २२१७.पुव्वभणिए य ठाणे, सुन्नोगादी चरंति वज्जेता। पढम-बिइयातुरा वा, जयणा आइन्न धुवकम्मी॥ __ पूर्वकथित जो शंकास्थान हैं-शून्यगृह आदि उनकी दूर से ही वर्जना कर विहरण करे। यदि प्रथम और द्वितीय परीषह से आक्रांत हो जनाकीर्ण, ध्रुवकर्मिक काष्ठकार, लोहकार जहां देख रहे हों, वहां यतनापूर्वक कलेवा करे अथवा पानक आदि ग्रहण करे। २२१८.दोन्नि वि ससंजईया, एगग्गामम्मि कारणेण ठिया। तासिं च तुच्छयाए, असंखडं तत्थिमा जयणा॥ वास्तव्य तथा आगंतुक साधु-दोनों के साथ साध्वियां हों और कारणवश एक ही ग्राम में रहना पड़े और साध्वियों की नुच्छता के कारण परस्पर कलह हो जाए जो यह यतना है२२१९.चुण्णाइ-विंटलकए, गरहियसंथवकए य तुब्भाहिं। ताई अजाणंतीओ, फव्वीहामो कहं अम्हे॥ शिष्य ने पूछा-यतना रहने दें। कलहोत्पत्ति का कारण क्या है? वास्तव्य साध्वियों को पूछा-क्या आपको यथेष्ट भक्तपान मिला या नहीं? वे बोली-आपने अपना यह क्षेत्र वशीकरण चूर्ण, विंटल तथा गर्हित पूर्व-पश्चात् संस्तव से भावित कर रखा है। हम चूर्ण आदि करना नहीं जानती, तो हमें यहां यथेष्ट भक्तपान कैसे प्राप्त हो सकेगा? २२२०.सेणाणुमाणेण परं जणोऽयं, ठावेइ दोसेसु गुणेसु चेव। पावस्स लोगो पडिहाइ पावो, कल्लाणकारिस्स य साहुकारी॥ तब वास्तव्य साध्वियां उत्तर देती हैं-मनुष्य अपने ही अनुमान से दूसरे को गुणी या दोषी ठहराता है। यह सही है कि पापकर्म करने वाले को सारा लोक पापकर्मकारी प्रतीत होता है। और कल्याणकारी व्यक्ति को सारा जगत कल्याण करने वाला प्रतीत होता है। इसीलिए २२२१.नूणं न तं वट्टइ जं पुरा भे, इमम्मि खेत्ते जइभावियम्मि। अवेयवच्चाण जतो करेहा, __ अम्हाववायं अइपंडियाओ॥ आपने निश्चित ही पहले कुंटल-विंटल आदि किया है। यह क्षेत्र यतिभावित है। आपने यह कैसे जाना कि हमने यहां कुंटल-वेंटल किया है। आप अपेतावाच्य-जनप्रवाद रहित हैं, अतः आप अतिपंडित होने के कारण हम पर झूठा आरोप लगा रही हैं। २२२२.तत्थेव अणुवसंते, गणिणीइ कहिति तह वि हु अठंते। गणहारीण कहेंती, सगाण गंतूण गणिणीओ। इस प्रकार कलह हो जाने पर उसका वहीं उपशमन कर लेना चाहिए। यदि उपशांत न हो तो अपनी-अपनी गणिनी को कहना चाहिए। प्रवर्तिनी के द्वारा भी उपशांत न हो तो उन प्रवर्तिनियों को अपने-अपने गणधर को कहना चाहिए। २२२३.उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारिनिवेदणं तु कायव्वं । जइ अप्पणा भणेज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा। अधिकरण कलह उत्पन्न होने पर एक गणधर दूसरे गणधर को निवेदन करे। वह गणधर स्वयं जाकर दूसरे गणधर की साध्वी को कुछ कहता है. (उपालंभ देता है) तो चतुर्मास गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २२२४.वतिणी वतिणिं वतिणी, व परगुरुं परगुरू व जइ वइणिं। जंपइ तीसु वि गुरुगा, तम्हा सगुरूण साहेज्जा। यदि साध्वी साध्वी को कहती है-उपालंभ देती है, या साध्वी परगुरु से कहती है या परगुरु उस साध्वी को कहते हैं-इन तीनों अवस्थाओं में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए अपने गुरु को ही कहना चाहिए। २२२५.जाणामि दूमियं भे, अंगं अरुयम्मि जत्थ अर्कता। को वा एअं न मुणइ, वारेहिह कित्तिया वा वि॥ परवतिनी को उपालंभ देने पर वह कहती है-मैं जानती हूं आपके पीड़ित अंग को मर्म की बात को। मैंने आपके साध्वी को कुछ कहा तो आपने मेरे पर ही आक्रमण कर डाला। इस मर्म की बात को कौन नहीं जानता? आप किन-किन को, यह तथ्य प्रगट न करने के लिए निवारित करेंगे? मैं निवारित होने पर यह रहस्य प्रगट नहीं करूंगी, परन्तु दूसरे प्रगट कर देंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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