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मिथ्यात्व में संक्रमणकाल में उपशम सम्यक्त्व से गिरता हुआ जीव अभी भूमी को अप्राप्त है, अपान्तराल में है, ( उपशमसम्यक्त्व से गिर चुका है, परन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है) उसमें जघन्यतः एक सामयिक और उत्कर्षतः षट आवलिक सास्वादन सम्यक्त्व होता है। १२८. आसदेउं व गुलं, ओहीरंतो न सुट्टु जा सुयति ॥
सं आयं सायंतो सस्सादो वा वि सासाणो ॥ प्रश्न होता है, जो उपशमसम्यक्त्व से च्युत हो गया है। उसे सम्यग्दृष्टि कैसे कहा जा सकता है ?
कोई व्यक्ति गुड़ का आस्वाद लेकर सो गया। परन्तु अभी तक वह अच्छी तरह नींद नहीं ले पाया है, उसे तब भी गुड़ की मधुरता का स्वाद आता है। इसी प्रकार उपशमसम्यक्त्व से च्युत व्यक्ति को भी, मिथ्यात्व की अप्राप्ति तक उपरामगुण का वेदन होता है।
सास्वादन शब्द की व्युत्पत्ति - 'सं आयं सायंतो, सस्सादो वा वि सासाणो अपनी आय प्राप्ति का आस्वादन अर्थात् अव्यक्त उपशमगुण का स्वादसहित अनुभव। वह है सास्वादन | १२९. जो उ उदिने खीणे, मिच्छे अणुदिन्नगम्मि उवसंते।
सम्मीभावपरिणतो, वेयंतो पोग्गले मीसो ॥ जो मिध्यात्व के दलिक उदयप्राप्त हैं, उनको क्षीण कर तथा जो उदयप्राप्त नहीं हैं उनका उपशमन कर अर्थात् किंचित् सम्यक्त्वरूप में परिणत कर और किंचित् मूल मिथ्यात्वरूप में ही स्थित ऐसी अवस्था में सम्यक्त्वरूप में परिणत पुद्गलों का वेदन करने वाला मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यदृष्टि होता है।
१३०. जो चरमपोग्गले पुण, वेदेती वेयगं तयं बिंति ।
केसिंचि अणादेसो, बेयगदिडी खओवसमो ॥ (जो दर्शनसप्तक को क्षीण कर चुका है और जो अनन्तरसमय में शायक सम्यक्त्वी होने वाला है उस समय वह जो सम्यग्दर्शन के चरम पुद्गलों का वेदन करता है, उस व्यक्ति के चरमपुद्गलों का वेदन वेदकसम्यक्त्व कहलाता है। कोई अर्थात् बोटिक आदि यह मानते हैं कि वेदकदृष्टि अर्थात् वेदकसम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि है। परन्तु यह मान्यता अनादेश है, उचित नहीं है।
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१३१. दंसणमोहे खीणे, खयदिट्ठी होइ निरवसेसम्मि केण उ सम्मो मोहो, पडुच्च पुव्वं तु पण्णवणं ॥ दर्शनमोह के सम्पूर्णरूप से क्षीण होने पर क्षयदृष्टि अर्थात् क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त होता है।
१. निर्मदनीकृतकोद्रवों का ओदन भी मदनकोद्रवओदन कहलाता है। क्योंकि पूर्व में वे मदनयुक्त थे। इसी प्रकार सम्यक्त्व के वे पुदगल भी
बृहत्कल्पभाष्यम्
प्रश्न होता है कि मिध्यात्वदर्शन मोह हो सकता है, परंतु सम्यक्दर्शन मोह कैसे हो सकता है? आचार्य कहते हैं- पूर्व प्रज्ञापना के आधार पर ऐसा कहा गया है।
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१३२. चोद्दस दस य अभिन्ने, नियमा सम्मं तु सेसए भयणा ।
मति - ओहिविवच्चासो, वि होति मिच्छे ण उण सेसे ॥ चौदहपूर्वी से अभिन्नदशपूर्वी पर्यन्त - इनमें नियमतः सम्यक्त्व होता है। शेष अर्थात् किंचित् न्यून दशपूर्वधर आदि में उसकी भजना है- सम्यक्त्व भी हो सकता है और मिथ्यात्व भी मतिज्ञान और अवधिज्ञान के मिथ्यात्व में विपर्यास भी होता है, जैसे मतिज्ञान का मतिअज्ञान और अवधिज्ञान का विभंग अज्ञान । श्रुतज्ञान का विपर्यास पहले बताया जा चुका है। शेष अर्थात मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान में विपर्यास नहीं होता।
१३३. दंसणमोग्गह ईहा नाणमवातो उ धारणा जह उ
तह तत्तरुई सम्मं रोइज्जह जेण तं नाणं ॥ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में कौन विशेष है ? अवग्रह और ईहा दर्शन है तथा अवाय और धारणा ज्ञान है। दर्शन सामान्यावबोधात्मक होता है और ज्ञान विशेषबोधात्मक होता है जो तत्त्वों की जानकारी है वह सम्यग्ज्ञान है और जो तत्त्वों में रुचि है, श्रद्धा है, वह सम्यग्दर्शन है। वह ज्ञान को रुच्यात्मक बनाता है।
१३४. सोच्चा व अभिसमेच्च व तत्तरुई चेव होइ सम्मत्तं ।
तत्थेव य जा विरुई, इतरत्थ रुई य मिच्छत्तं ॥ केवली आदि से सुनकर अथवा जातिस्मरण आदि से जानकर जो तत्त्व के प्रति रुचि होती है वह सम्यक्त्व है। तत्त्व में विरुचि और इतर अर्थात् अतत्त्व में रुचि होना मिथ्यात्व है। १३५. अब्वोच्छित्तिनयद्वा एवं तु अणाश्यं जहा लोए ।
वोच्छेयनया सादी, पप्प गईतो जहा जीवो ॥ अव्यवच्छित्तिनय (द्रव्यास्तिकनय) के मत के अनुसार श्रुतज्ञान अनादि है और अनंत है, जैसे लोक व्यवच्छेदनय (पर्यायास्तिकनय) के अनुसार श्रुतज्ञान सादि-आदिसहित और अंतसहित होता है, जैसे गति (देवगति नरकगति आदि) को प्राप्त जीव
१२६. दव्वाहच वा, पडुच्च सादी व होज्जऽणादी वा
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दव्यम्मि एमपुरिसं पडुच्च सादी सनिहणं च ॥ द्रव्य आदि चतुष्क द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर श्रुतज्ञान सादि अथवा अनादि हो सकता है। द्रव्य में अर्थात एक पुरुष की अपेक्षा से श्रुतज्ञान सावि और सान्त है।
पूर्व में मिथ्यात्व के पुद्गल थे। वे दर्शनमोहक थे। अतः पूर्वभाव की प्रज्ञापना के अनुसार उन्हें दर्शनमोह कहा गया है।
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