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पीठिका
कांकटुक (कोरडू) धान्य को दीप्त अग्नि भी नहीं पका सकती, यह उसके प्रति अग्नि का द्वेष नहीं है। वह इतर धान्य को पका डालती है, यह उनके प्रति कोई राग नहीं है। इसी प्रकार सूत्र की वाचना देने, न देने में सूत्रकार की रागद्वेषयुक्त प्रवृत्ति नहीं होती। २२२. जे उ अलक्खणजुत्ता, कुमारगा ते निसेहिउं इयरे।
रज्जरिहे अणुमन्नइ, सामुद्दो नेय विसमो उ॥ सामुद्रलक्षणज्ञाता अलक्षणयुक्त राजकुमारों का निषेध कर, लक्षणयुक्त राजकुमार को राजयोग्य मानता है। ऐसा करने वाला विषम-राग-द्वेषवान् नहीं होता। २२३. जो जह कहेइ सुमिणं, तस्स तह फलं कहेइ तन्नाणी।
रत्तो वा दुट्ठो वा, न यावि वत्तव्वयमुवेइ॥ जो जैसा स्वप्न देखता है, कहता है, स्वप्नशास्त्री उसी का फल बताता है। वह रक्त या द्विष्ट होकर कोई बात नहीं कहता। २२४. अग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमाईया।
अपरिणयजणे एए, सप्पडिवक्खा उदाहरणा॥ अपरिणत शिष्य, जो कालान्तर में योग्य हो सकता है, इस विषयक अर्थात पहले अयोग्य और पश्चात् योग्य विषयक-ये प्रतिपक्ष उदाहरण हैं-अग्नि, बाल, ग्लान, सिंह, वृक्ष और करील आदि। २२५. जह अरणीनिम्मविओ, थोवो विउलिंधणं न चाएइ।
दहिउं सो पज्जलिओ, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा। २२६. एवं खु थूलबुद्धी, निउणं अत्थं अपच्चलो घेत्तुं।
सो चेव जणियबुद्धी, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा। जैसे अरणि से निर्मापित थोड़ी अग्नि विपुल इंधन को जलाने में समर्थ नहीं होती, पश्चात् वही अग्नि प्रज्वलित होकर सभी इंधन को जलाने में सक्षम हो जाती है।
इसी प्रकार स्थूलबुद्धि वाला शिष्य विपुल अर्थ को ग्रहण करने में सक्षम नहीं होता, वही वृद्धिंगत बुद्धि वाला होकर समस्त शास्त्रों को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। २२७. देहे अभिवडंते, बालस्स उ पीहगस्स अभिवुड्डी।
अइबहएण विणस्सइ, एमेवऽहणुट्ठिय गिलाणे॥ शरीर की वृद्धि के साथ-साथ पीहक आहार की भी अभिवृद्धि होती है। यदि बालक को अतिबह आहार दिया जाता है तो वह विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार अभी-अभी रोग से मुक्त व्यक्ति के विषय में ज्ञातव्य है।
(इसी प्रकार शिष्य भी अपनी योग्यता के अनुसार शास्त्रों को क्रमशः ग्रहण करता है। प्रारंभ से ही अतिनिपुण शास्त्रग्रहण से उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
२२८. खीर-मिउपोग्गलेहि, सीहो पुट्ठो उ खाइ अट्ठी वि।
रुक्खो बिवन्नओ खलु, वंसकरिल्लो य नहछिज्जो॥ २२९. ते चेव विवढता, हंति अछेज्जा कुहाडमाईहिं।
तह कोमला वि बुद्धी, भज्जइ गहणेसु अत्थेसु॥ सिंह शिशु प्रारंभ में दूध और मृदु मांस खाता है और पुष्ट होकर (बड़ा होकर) वह हड्डियों को भी चबाने लग जाता है। द्विपर्ण वृक्ष तथा वंशकरील ये दोनों प्रारंभ में नखछेद्य होते हैं। वे ही जब बड़े हो जाते हैं तब कुठार आदि से भी नहीं छेदे जाते। इसी प्रकार शिष्य की बुद्धि पहले कोमल होती है। उस समय वह गहन अर्थों में टूट जाती है। क्रमशः वह कठोर, कठोरतर हो सकती है। २३०. निउणे निउणं अत्थं, थूलत्थं थूलबुद्धिणो कहए।
बुद्धीविवद्धणकर, होहिइ कालेण सो निउणो॥ निपुण शिष्य को निपुण अर्थ का कथन करे और स्थूलबुद्धि वाले शिष्य को स्थूल अर्थ का कथन करे। कालान्तर में वही स्थूलबुद्धि शिष्य अपनी बुद्धि को वृद्धिंगत कर निपुण होगा। (अन्यथा प्रारंभ में उसे निपुण अर्थ का बोध कराने पर उसकी बुद्धि का भंग हो सकता है।) २३१. सिद्धत्थए वि गिण्हइ, हत्थी थूलगहणे सुनिम्माओ।
सरवेह-छिज्ज-पवए, घड-पड-चित्ते तहा धमए। हाथी को पहले स्थूल वस्तुओं के ग्रहण में निपुण किया जाता है। जब वह उसमें निर्मित हो जाता है तब वह उड़द के दानों का भी ग्रहण करने में सक्षम हो जाता है। इसी प्रकार स्वरवेध, पत्रच्छेद्यक, प्लवक, घटकारक, पटकारक, चित्रकारक तथा धमक के दृष्टांत हैं। २३२. जत्थ मई ओगाहइ, जोग्गं जं जस्स तस्स तं कहए।
परिणामा-ऽऽगमसरिसं, संवेगकरं सनिव्वेयं॥ शिष्य की मति भी जैसे-जैसे जितना-जितना अवगाहन करती है, उसके योग्य जो शास्त्र हो उसको उस शास्त्र की वाचना देनी चाहिए। आगम के सदृश ही उसके परिणाम होंगे, इसलिए उसको संवेगकर और निर्वेदकर आगम की वाचना देनी चाहिए। २३३. गिण्हत-गाहगाणं, आइसुएस उ विही समक्खाओ।
सो चेव य होइ इहं, उज्जोगो वन्निओ नवरं। ग्रहण करने वाले शिष्य और ग्राहक आचार्य के लिए आदिसूत्र-सामायिक में जो विधि समाख्यात है, वही विधि यहां भी वक्तव्य है। आचार्य शिष्यों को अनुयोग कहने में जो उद्यम करते हैं (तीन या सात परिपाटियों का) वह यहां विस्तार से वर्णित है।
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