Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 214
________________ १४४ = =बृहत्कल्पभाष्यम् केवल स्वगच्छ से क्षमायाचना करते हैं। पूर्वविराधित मुनियों तदनन्तर वे मुनि गच्छ से निरपेक्ष होकर अपने भांड से क्षमा मांगते हैं। लेकर वहां से चल पड़ते हैं, जैसे पक्षी अपनी पांखों के साथ १३६८.जइ किंचि पमाएणं, न सुट्ट भे वट्टियं मए पुविं।। अन्यत्र चला जाता है। वे तृतीय पौरुषी में विहार करते हुए तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ एकांत अर्थात् मासप्रायोग्य क्षेत्र में चले जाते हैं। उनके विहार क्षमायाचना करते हुए कहते हैं-यदि मैंने पूर्व में आप का मर्यादाकाल है तीसरा प्रहर, अन्य प्रहरों में नहीं। मुनियों के प्रति प्रमादवश उचित बर्ताव न किया हो तो मैं १३७५.सीहम्मि व मंदरकंदराओ नीहम्मिए तओ तम्मि। निःशल्य और निष्कषाय होकर क्षमायाचना करता हूं। चक्खुविसयं अइगए, अइंति आणंदिया साहू।। १३६९.आणंदअंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा। जैसे सिंह मंदरकंदरा से निर्गत होता है, वैसे ही खामिति जहरिहं खलु, जहारिहं खामिता तेणं॥ अनगार गच्छ से निर्गत होते हैं तब अन्य मुनि उनका वे मुनि भी आनंद से अश्रुपात करते हुए, भूमी पर शिर अनुगमन करते हैं और जब वे आंखों से ओझल हो जाते हैं टिकाए हुए यथायोग्य अपने पर्यायक्रम से उनसे क्षमायाचना तब वे अनुगत मुनि आनंदित होते हुए अपनी वसति में लौट करते हैं। वे आचार्य भी यथार्ह पर्यायज्येष्ठ से क्षमायाचना आते हैं। करते हैं। १३७६.निच्चेल सचेले वा, गच्छारामा विणिग्गए तम्मि। १३७०. खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे। चक्खुविसयं अईए, अयंति आणंदिया साहू॥ लावियं एगत्तं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे॥ गच्छरूपी आराम से सचेल अथवा अचेल अवस्था में जिनकल्प स्वीकार करने वाले मुनि या आचार्य के द्वारा निर्गत मुनि जब तक आंखों से ओझल नहीं हो जाता तब तक क्षमायाचना से ये गुण निष्पन्न होते हैं-निःशल्यता, विनय की अन्य मुनि उसका अनुगमन करते हैं और फिर आनंदित होते विज्ञप्ति, मार्ग की दीपना, लघुता की उपपत्ति, एकत्व की हुए अपने स्थान पर लौट आते हैं। अनुभूति, प्रतिबंध के अभाव की अनुभूति। १३७७.आभोएउं खेत्तं, निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं। १३७१.अह ते सबाल-वुड्डो, गच्छो साइज्ज णं अपरितंतो। • गंतूण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं ।। एसो हु परंपरतो, तुम पि अंते कुणसु एवं ।। क्षेत्र को निर्व्याघात और मासनिर्वहन योग्य जानकर आचार्य अपने गणधर को अनुशिष्टि देते हैं जिनकल्पी मुनि वहां जाते हैं और अपनी मर्यादा के अनुसार यह सबाल-वृद्ध गच्छ तुम्हारी निश्रा में है। तुम जीवनयापन करते हैं। यह जिनकल्प मुनि के विशेष अपरितप्तभाव से इसका सांगोपांग पालन करना। यही शिष्य अनुष्ठानरूप विहार का संक्षिप्त विवरण है। और आचार्य का क्रम है। तुम भी अंत में अव्यवच्छित्तिकारक १३७८ इच्छा-मिच्छा-तहक्कारो, आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा। शिष्य का निष्पादन कर अभ्युद्यत विहार स्वीकार करना। पडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चेव॥ १३७२.पुव्वपवित्तं विणयं, मा हु पमाएहिं विणयजोगेसु। दस प्रकार की सामाचारी यह है-इच्छाकार, मिथ्याकार, जो जेण पगारेणं, उववज्जइ तं च जाणाहिं॥ तथाकार, आवश्यिकी, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, तुम विनययोग्य-गौरवाह जो मुनि हैं उनके प्रति पूर्वप्रवृत्त छंदना, निमंत्रणा और उपसंपदा। विनय की प्रमादवश हानि मत करना। जो मुनि जिस विधि से १३७९.आवसि निसीहि मिच्छा, आपुच्छुवसंपदं च गिहिएसु। निर्जरा के प्रति सजग होता हो उसको जानकर उन-उन अन्ना सामायारी, न होंति से सेसिया पंच॥ मुनियों को उसीमें प्रवर्तित करना।' . इनमें से जिनकल्पी मुनि पांच सामाचारियां स्वीकार १३७३.ओमो समराइणिओ, अप्पतरसुओ अ मा य णं तुब्भे। करता है-आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा तथा परिभवह तुम्ह एसो, विसेसओ संपयं पुज्जा॥ उपसंपदा। वह इनको गृहस्थों के प्रति प्रयुक्त करता है। इस अवसर पर आचार्य साधुओं को कहते हैं-मुनियो! ये प्रयोजन के अभाव में शेष पांच सामाचारियों का प्रयोग नहीं स्थापित गणधर अवमरात्निक हैं, समरात्निक हैं, अल्पतर- होता। इस विषयक अन्य मत इस प्रकार है-- श्रुतसंपन्न हैं-वह सोचकर तुम इनका पराभव मत करना। ये १३८०.आवासियं निसीहियं, मोत्तुं उवसंपयं च गिहिएसु। ही अभी तुम सबके लिए विशेषरूप से पूज्य हैं। सेसा सामायारी, न होति जिणकप्पिए सत्त॥ १३७४.पक्खीव पत्तसहिओ, सभंडगो वच्चए निरवयक्खो। जिनकल्पी मुनि के आवश्यिकी, नैषेधिकी-इन दो एगंतं जा तइया, तीए विहारो से नऽन्नासु॥ सामाचारियों को छोड़कर तथा उपसंपदा सामाचारी गृहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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