Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 276
________________ २०६ = बृहत्कल्पभाष्यम् में छोड़कर जाते हैं तो चतुर्लघु, निवेशन तक लाकर छोड़ने कुल, गण या संघ को समर्पित कर देने पर इन कारणों से पर चतुर्गुरु, गली में छोड़े तो षडलघु, ग्राममध्य में छोड़े तो ग्लान का परित्याग किया जा सकता है, फिर भी परित्याग न षड्गुरु, ग्रामद्वार पर छोड़े तो छेद, उद्यान में छोड़े तो मूल, कर उसको वहन किया जाता है। यदि वे उसके उपकरण गांव की सीमा पर छोड़े तो अनवस्थाप्य, ग्राम की सीमा से । वहन करने में समर्थ न हों तो उपकरणों का परित्याग कर दे, आगे छोड़े तो पारांचिक। ग्लान का नहीं। १९९८.छम्मासे आयरिओ, गिलाण परियट्टई पयत्तेणं। २००४.अहवा वि सो भणेज्जा, छड्डेउ ममं तु गच्छहा तुब्भे। जाहे न संथरेज्जा, कुलस्स उ निवेदणं कुज्जा॥ होउ त्ति भणिय गुरुगा, इणमन्ना आवई बिइया। ग्लान की प्रतिचर्या करने का काल अथवा वह ग्लान कहे-मुझको छोड़कर तुम सब चले आचार्य छह मास तक ग्लान की प्रयत्नपूर्वक परिचर्या । जाओ। ऐसा कहने पर यदि कोई कहे-ठीक है, ऐसा ही हो करे। यदि छह मास में भी ग्लान नीरोग न हो तो आचार्य तो उसको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यह दूसरे प्रकार कुल को निवेदन कर, उसे सौंप दे। की आपदा है। १९९९.संवच्छराणि तिन्नि य, कलं पि परियई पयत्तेणं। २००५.पच्चंतमिलक्खेसुं, बोहियतेणेसु वा वि पडिएस। जाहे न संथरिज्जा, गणस्स उ निवेदणं कुज्जा।। जणवय-देसविणासे, नगरविणासे य घोरम्मि। कुल भी पूरे तीन संवत्सरों तक प्रयत्नपूर्वक परिचर्या २००६.बंधुजणविप्पओगे, अमायपुत्ते वि वट्टमाणम्मि। करे, फिर भी यदि ग्लान नीरोग नहीं होता है तो कुल गण तह वि गिलाण सुविहिया, वच्चंति वहंतगा साहू। को निवेदन करे और ग्लान को उसे सौंप दे। प्रत्यंतदेशवासी म्लेच्छों और बोधिकस्तेन मनुष्यों का २०००.संवच्छरं गणो वी, गिलाण परियट्टई पयत्तेणं॥ हरण करने वालों का आक्रमण हो जाने पर, जनपद अथवा जाहे न संथरिज्जा, संघस्स निवेयणं कुज्जा॥ उसके एक भाग का विनाश हो जाने पर अथवा नगर का घोर गण में संवत्सर तक उस ग्लान की प्रयत्नपूर्वक विनाश हो जाने पर, बंधुजनों का विप्रयोग हो जाने पर अथवा परिचर्या करने पर भी यदि ग्लान नीरोग न हो तो गण संघ अमातापुत्र की स्थिति उत्पन्न हो जाने पर अर्थात् ऐसी स्थिति को निवेदन करे। संघ उस ग्लान की यावज्जीवन तक जिसमें सभी अपने-अपने जीवितव्य की चिंता करते हैं, न मां परिचर्या करे। का स्मरण करती है और न पुत्र माता की स्मृति करता है२००१.छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराई तिन्नि भवे। इन सारी स्थितियों में भी सुविहित मुनि ग्लान को वहन करते संवच्छरं गणो वी, जावज्जीवाय संघो उ॥ हैं, छोड़ते नहीं। आचार्य छह मास तक ग्लान की परिचर्या करे, कुल तीन २००७.तारेह ताव भंते!, अप्पाणं किं मएल्लयं वहह। संवत्सरों तक और गण भी एक संवत्सर तक तथा संघ एगालंबणदोसेण मा हु सव्वे विणस्सिहिह ।। यावज्जीवन तक परिचर्या करे। तब ग्लान उन्हें कहता है-भदंत! आप अपने आपको (यह सारा उस ग्लान मुनि के लिए है जो भक्तप्रत्याख्यान सुखासिका में रखें। आप मेरे जैसे मृतप्राय व्यक्ति का वहन नहीं कर सकता। जो भक्तप्रत्याख्यान कर सकता है क्यों कर रहे हैं? मेरे एक आलंबन के दोष से आप सब वह अठारह महीनों तक परिचर्या कराए। उससे भी यदि अपने आपका विनाश क्यों कर रहे हैं? क्यों अपने आपको स्वस्थ न हो तो भक्तप्रत्याख्यान कर दे। यदि रोग असाध्य कष्ट में डाल रहे हैं? हो जाए अथवा अन्यान्य अपरिहार्य कारण उत्पन्न हो जाने २००८.एवं च भणियमेत्ते, आयरिया नाण-चरणसंपन्ना। पर ग्लान की वैयावृत्त्य न भी करे अथवा उसका परित्याग अचवलमणलिय हितयं, संताणकरिं वइमुदासी॥ कर दे।) (वृ. पृ. ५८०) २००९.सव्वजगज्जीवहियं, साहुं न जहामो एस धम्मो णे। २००२.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भये व गेलन्ने। जति य जहामो साहू, जीवियमित्तेण किं अम्हं।। एएहिं कारणेहिं, अहवा वि कुले गणे संघे॥ ग्लान के इस प्रकार कहने मात्र से ज्ञान-चारित्र संपन्न २००३.एएहिं कारणेहि, तह वि वहंती न चेव छडिंति। आचार्य अचपल, सत्य, हितकारी तथा संत्राणकारी परित्राण __ असहू वा उवगरणं, छड्डिंति न चेव उ गिलाणं॥ देनेवाली वाणी में कहते हैं वत्स! हमारा यह धर्म है कि हम अशिव, अवमौदर्य, राजाद्विष्ट हो जाने पर भय के कारण समस्त जीवों के लिए कल्याणकर साधु का परित्याग नहीं अथवा सारा गण ग्लान हो जाने पर-इन कारणों से अथवा कर सकते। यदि हम साधु का परित्याग करते हैं तो हमारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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