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तारिसआ ।
प्रतिपद्यमानक तथा पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से द्रव्यलिंग में विकल्पनीय होते हैं। भावलिंग तो सदा होता ही हैं। प्रतिपत्ति शुद्धलेश्या और धर्म्यध्यान में होती है। पूर्व प्रतिपन्नक छहों लेश्याओं में से किसी एक में तथा चारों प्रकार के ध्यानों में किसी एक ध्यान में होते हैं।' १६४०.झाणेण होइ लेसा, झाणंतरओ व होइ अन्नयरी।
अज्झवसाओ उ दढो, झाणं असुभो सुभो वा वि॥ भावलेश्या ध्यान अथवा ध्यानान्तर से होती है। ध्यान दृढ़ अध्यवसाय है। वह शुभ अथवा अशुभ होता है। दृढ़ अध्यवसाय अंतर्मुहूर्त्तकाल तक ही रहता है। निरंतर वह नहीं होता। सारा अदृढ़ अध्यवसाय चिंता कहलाता है। १६४१.झाणं नियमा चिंता, चिंता भइया उ तीसु ठाणेसु।
झाणे तदंतरम्मि उ, तब्विवरीया व जा काइ॥ ध्यान नियमतः चिंता है। चिंता की तीन स्थानों में भजना है। ध्यान में, ध्यानान्तर में, अथवा तद्विपरीत अर्थात् विप्रकीर्ण चिन्तचेष्टा जो ध्यान में या ध्यानान्तरिका में
अवतरित नहीं होती। इसलिए जब दृढ़ अध्यवसाय से चिंतन किया जाता है तब चिंता और ध्यान का एकत्व होता है, अन्यथा अन्यत्व। १६४२.कायादि तिहिक्किक्कं, चित्तं तिव्व मउयं च मज्झं च।
जह सीहस्स गतीओ, मंदा य पुता दुया चेव॥ दृढ़ अध्यवसायात्मक चित्त तीन प्रकार का होता हैकायिक, वाचिक और मानसिक। (कायिक जैसे-काया की प्रवृत्ति के व्याक्षेपों का परिहार करता हुआ भंगों की चारणिका करता है अथवा कूर्म की भांति अंगोपांगों को संलीन करता है। वाचिक-मुझे निरवद्य भाषा बोलनी है, सावध भाषा नहीं अथवा विकथा को छोड़ श्रुत परावर्तन करना चाहिए। मानसिक-एक वस्तु में चित्त की एकाग्रता।) ये तीनों तीन-तीन प्रकार के होते हैं-तीव्र, मृदु और मध्य। जैसे सिंह की गति तीन प्रकार की होती है-मन्द, द्रुत और प्लुत। १६४३.अन्नतरझाणऽतीतो, बिइयं झाणं तु सो असंपत्तो।
झाणंतरम्मि बट्टइ, बिपहे व विकुंचियमईओ।। ध्यानान्तरिका किसे कहते हैं? किसी एक वस्तुविषयक ध्यान से उपरत होकर जब तक वह दूसरे ध्यान को असंप्राप्त होता है, तब तक वह ध्यानान्तरिका में वर्तन करता है। जैसे एक ध्यान से उपरत १. लेश्या-जीव का शुभ-अशुभ परिणाम । यह चल अथवा अचल दोनों
प्रकार का होता है। ध्यान-आत्मा का शुभ-अशुभ परिणाम। यह अचल ही होता है।
बृहत्कल्पभाष्यम् होकर वह सोचता है अब मैं किस वस्तु पर ध्यान करूं इस प्रकार का विमर्श ध्यानान्तरिका कहलाती है। दो गांवों में जाने के दो मार्ग देखकर पथिक 'विकुचितमतिक' अर्थात् किस मार्ग से जाऊं, इस प्रकार विमर्श से आकुल मतिवाला होकर अपान्तराल में रहता है। यह ध्यानान्तर है। यही स्वरूप है ध्यानान्तरिका का। १६४४.वण्ण-रस-गंध-फासा इट्ठाऽणिट्ठा विभासिया सुत्ते।
अहिक्किच्च दव्वलेसा, ताहि उ साहिज्जई भावो॥ सूत्र (प्रज्ञापना आदि) में द्रव्य लेश्या के इष्ट-अनिष्ट वर्ण, रस, गंध और स्पर्श का अनेक प्रकार से वर्णन प्राप्त है। उन द्रव्य लेश्याओं से शुभ-अशुभ अध्यवसायरूप भाव सिद्ध होते हैं, जाने जाते हैं। १६४५.पत्तेयं पत्तेयं, वण्णाइगुणा जहोदिया सुत्ते।
तारिसओ च्चिय भावो, लेस्साकाले वि लेस्सीणं ।। कृष्ण आदि प्रत्येक लेश्याओं में से एक-एक द्रव्यलेश्या के वर्ण आदि गुण जैसे सूत्र में बतलाए गए हैं वैसे ही भाव लेश्याकाल में लेश्यी (लेश्यावान् व्यक्ति) के होते हैं। १६४६. चिज्जए उ कम्म, जं लेसं परिणयस्स तस्सुदओ।
___ असुभो सुभो व गीतो, अपत्थ-पत्थऽन्न उदओ वा॥ जिस कृष्ण आदि लेश्या में परिणत जीव का जो शुभअशुभ कर्म बंधता है, उसका उदय भी शुभ-अशुभ ही होता है-ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। यहां अपथ्य-पथ्य भोजन का दृष्टांत दिया गया है। जैसे पथ्य भोजन उदय काल में शुभ होता है और अपथ्य भोजन उदय काल में रोग आदि का जनक होता है। १६४७.पडिवज्जमाण भइया, एगो व सहस्ससो व उक्कोसा।
कोडिसहस्सपुहत्तं, जहन्न-उक्कोसपडिवन्ना॥ स्थविरकल्प साधना के प्रतिपद्यमानक विवक्षित काल में होते भी हैं और नहीं भी होते। यदि होते हैं तो एक, दो आदि और उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व। पूर्वप्रतिपन्नक जघन्यतः कोटिसहस्रपृथक्त्व और उत्कर्षतः भी कोटिसहस्रपृथक्त्व। १६४८.लेवडमलेवडं वा, अमुगं दव्वं च अज्ज घिच्छामि।
अमुगेण व दव्वेणं, अह दव्वाभिग्गहो नाम। अभिग्रह चार प्रकार से होता है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। द्रव्यतः-लेपकृत अथवा अलेपकृत, आज मैं अमुक द्रव्य लूंगा, अमुक साधन से दिया जाने वाला द्रव्य लूंगा। यह द्रव्य अभिग्रह है। २. ध्यानान्तर-अदृढ़ अध्यवसाय रूप चिंतन अथवा ध्यान-ध्यान की
अन्तरिका।
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