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प्रकार का, दस प्रकार का बीस प्रकार का तथा बयालीस प्रकार का इनकी व्याख्या पंचकल्प में है जिसको इन पांचों का परिज्ञान नहीं है, उसके स्पष्टरूप से जड़ान्धकार है। २७५. पत्तो वि न निक्खिप्पर, सुत्तालावस्स इत्थ निक्खेवो । सुत्ताणुगमे वुच्छं, इति अत्थे लाघवं होइ ॥ यद्यपि यहां सूत्रालापक निक्षेप का प्रसंग प्राप्त है, फिर भी उसका निक्षेप न करके, सूत्रानुगम की बात कहूंगा। इस प्रकार करने से अर्थ लाघव होता है।
२७६. लक्खणओ खलु सिद्धी, तदभावे तं न साहए अत्थं । सिद्धमिदं सव्वत्थ वि, लक्खणजुत्तं सुयं तेण ॥ अनुगम के तीन द्वार हैं- लक्षण, तव पर्षद और सूत्रार्थ लक्षणयुक्त की अर्थसिद्धि होती है। लक्षणहीन सूत्र की अर्थसिद्धि नहीं होती। यह सर्वत्र सिद्ध है। इसलिए सूत्र लक्षणयुक्त होता है।
२७७. अप्परगंथ महत्वं, बत्तीसादोसविरहियं जं च।
लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहिं उववेयं ॥ सूत्र के लक्षण - अल्पग्रंथ अर्थात् अल्पअक्षरों से निबद्ध, महान् अर्थवाला, बत्तीस दोषों से रहित, आठ गुणों से उपपेत एस प्रकार का सूत्र लक्षणयुक्त होता है। २७८. अलियमुवघायजणयं, अवत्थग निरत्थयं छलं दुहिलं । निस्सारमहियमूणं, पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं ॥
२७९. कमभित्र वयणभिन्नं विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च । अणभिहियमपयमेव य, सभावहीणं ववहियं च ॥ २८०, काल जइच्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावत्तदोसो, हवइ य असमासदोसो उ। २८१. उवमा रूवगदोसो, परप्पवती य संधिदोसो य । एए उ सुत्तवोसा, बत्तीसं हृति बत्तीसं हुंति नायव्वा ॥ सूत्र के बत्तीस दोष
९. अलीक - यथार्थ का गोपन करने वाला ।
२. उपघातजनक |
३. अपार्थक- असंबद्ध अर्थवाला ।
४. निरर्थक-अर्थहीन |
५. छलयुक्त वचन ।
६. द्रोणशील।
७. निस्सार
८. अधिक यथार्थ तत्त्व से अधिक का निरूपक । ९. न्यून - यथार्थ के किसी अवयव से रहित ।
१०. पुनरुक्त दोष से युक्त ।
११. व्याहत परस्पर बाधित ।
१२. अयुक्त।
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१३. क्रमभिन्न
१४. वचनमिन्न।
१५. विभक्तिभिन्न।
१६. लिंगभिन्न ।
१७. अनभिहित-स्वसमय में अमान्य |
बृहत्कल्पभाष्यम्
१८. अपद-पद रहित ।
१९. स्वभावहीन ।
२०. व्यवहित-कुछ कहकर अन्य का विस्तार करना । २१. कालदोष काल का व्यत्यय करना । २२. यतिदोष पद के मध्य विश्राम रहित । २३. छविदोष - परुष शब्दों में सूत्र का निर्माण । २४. समयविरुद्ध किसी भी सिद्धांत के विरुद्ध वचन वाला। २५. वचनमात्र - कोई वचन कहकर उसीको प्रमाणित
करना, जैसे- कहीं पृथ्वी पर कीलिका गाड़कर कहना कि यही भूमी का मध्य है।
२६. अर्थापत्तिदोष ।
२७. असमासदोष प्राप्त समास के स्थान पर समासरहित पद कहना।
२८. उपमादोष काजी की भांति ब्राह्मण सूरापन करें। २९. रूपकदोष - पर्वत रूपी है, अपने अंगों से शून्य होता है।
३०. परप्रवृत्तिदोष - बहुत सारा अर्थ कह देने पर भी कोई निर्देश नहीं देता।
३१. परदोष ।
३२. संधिदोष- संधियों से शून्य पद | ये सूत्र के बत्तीस दोष ज्ञातव्य हैं। २८२. निहोस सारवंतं च,
उत्तमलंकियं । मियं महुरमेव थ।।
च,
उवणीयं सोवयारं
सूत्र के आठ गुण (१) निर्दोष (२) सारयुक्त (३) हेतुयुक्त (४) अलंकारयुक्त (५) उपनीत (६) सोपचार (७) मित (८) मधुर ।
२८३. दोसा खलु अलियाइ, बहुपज्जायं च सारखं सुतं । साहम्मेयरहेऊ, सकारणं वा बि हेऊनुयं ॥
२८४. उवमाइ अलंकारो, सोवणयं खलु वयंति उवणीयं । काहलमणोवयारं, दंडगममियं तिहा महुरं ॥ के आठ गुणों की व्याख्या
सूत्र
१. निर्दोष अर्थात् अलीक आदि दोषों से रहित ।
२. सारवान्-जिसके अनेक पर्याय होते हैं।
३. हेतुयुक्त - साधर्म्य और वैधर्म्य हेतुओं से युक्त अथवा
जो सकारण होता है वह ।
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