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-बृहत्कल्पभाष्यम्
विकल्प-सूत्र और पद सूत्र में प्रविष्ट हैं और शेष तीन विकल्प अर्थ संबंधी हैं। ३१०. सुत्तं तु सुत्तमेव उ, अहवा सुत्तं तु तं भवे लेसो। __ अत्थस्स सूयणा वा, सुवुत्तमिइ वा भवे सुत्तं॥
जो सुप्त की भांति होता है, अर्थ से अबोधित होता है वह है सुत्त (सुस अथवा सूत्र)। अथवा सूत्र होता है श्लेषतंतुरूप। अथवा अर्थ की सूचना देने वाला होता है सूत्र । अथवा शोभनीय कथन का अर्थ है सूक्त प्राकृत में 'सुत्त'। ३११. नेरुत्तियाई तस्स उ, सूयइ सिव्वइ तहेव सुवइ ति।
अणुसरति ति य भेया, तस्स उ नामा इमा हुंति॥ सूत्र शब्द के निरुक्त-सूत्रयतीति सूत्रम्-जो सूचित करता है, वह है सूत्र। सिव्यतीति सूत्रम्-जो सीता है वह है सूत्र । सुवतीति सूत्रम-जो प्रसूत करता है वह है सूत्र। अनुसरतीति सूत्रम्-जो अनुसरण करता है, वह है सूत्र। ये निरुक्त के भेद हैं। सूत्र शब्द के सुप्त आदि ये नाम होते हैं। ३१२. पासुत्तसमं सुत्तं, अत्थेणाबोहियं न तं जाणे।
लेससरिसेण तेणं, अत्था संघाइया बहवे॥ प्रसुप्त के समान होता है सूत्र। अर्थ के अबोधित होने पर कुछ भी नहीं जान पाता। अथवा श्लेषसदृश होता है सूत्र। अनेक अर्थ उसमें संघातित होते हैं। ३१३. सूइज्जइ सुत्तेणं, सूई नट्ठा वि तह सुएणऽत्थो।
सिव्वइ अत्थपयाणि व, जह सुत्तं कंचुगाईणि॥ सूई गुम हो गई। यदि उसमें सूत पिरोया हुआ हो वह सूत के द्वारा सूचित हो जाती है, मिल जाती है। इसी प्रकार श्रुत के द्वारा अर्थ सूचित होता है सूचनात् सूत्र इति। श्रुत अर्थपदों को सीता है, परस्पर जोड़ता है। जैसे सूत कंचुक आदि कपड़े को सीता है। ३१४. सूरमणी जलकतो, व अत्थमेवं तु पसवई सुत्तं।
वणियसुयंध कयवरे, तदणुसरंतो रयं एवं॥ जैसे सूर्यकान्तमणि अग्नि में और जलकान्तमणि जल में प्रक्षिप्त होते पर दोनों दीप्ति पैदा करते हैं, वैसे ही सूत्र अर्थ का प्रसव करता है। अनुसरण दो प्रकार का होता है-द्रव्यतः
और भावतः। द्रव्यतः अनुसरण में 'वणिक् के अंधे पुत्र और कचवर' का दृष्टांत है। वह अंधा पुत्र रज्जु का अनुसरण कर कचरे को बाहर फेंक देता है। इसी प्रकार वणिक्स्थानीय हैं १. एक वणिक था। उसका एकाकी पुत्र अंधा था। वणिक् ने सोचा-इसे कुछ काम में लगाना है। निठल्लापन इसके जीवन का अभिशाप होगा और यह सदा-सर्वत्र पराभव का भागी होगा। सेठ ने दो खंभे गड़वाकर वहां रज्जु बांध दी। अब वह अंधा पुत्र कमरों की सफाई करता और रज्जु का अनुसरण कर कचरे को बाहर डाल देता।
आचार्य और अंधस्थानीय हैं साधु। रज्जुस्थानीय है सूत्र और कचवरस्थानीय है-आठ प्रकार के कर्म। ३१५. सन्ना य कारगे पकरणे य सुत्तं तु तं भवे तिविह।
उस्सग्गे अववाए, अप्पे सेए य बलवंते॥ सूत्र के तीन प्रकार हैं-संज्ञासूत्र, कारकसूत्र और प्रकरणसूत्र। अथवा सूत्र के दो प्रकार हैं-औत्सर्गिक और आपवादिक। क्या उत्सर्गसूत्र अल्प हैं या अपवादसूत्र अल्प हैं? ये दोनों अपने-अपने स्थान में श्रेयस्कर और बलवान होते हैं। (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे के श्लोकों में।) ३१६. उवयार अनिद्गुरया, कज्जित्थीदाणमाहु नित्थक्का।
जे छे' आमगंधादि, आरं सन्ना सुयं तेणं॥ __संज्ञासूत्र-'यत् सामयिक्या संज्ञया सूत्रं भण्यते तत् संज्ञासूत्रम्'-जो सूत्र सामयिकी संज्ञाओं से ग्रथित है वह है संज्ञा-सूत्र। जैसे-'जे छेए से सागारियं न सेवए'
'सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए'
'आर दुगुणेणं पारं एगगुणेणं'-आर अर्थात् संसार का दुगुणेणं-राग और द्वेष से परिहार करे और पार अर्थात् मोक्ष को एगगुण-राग-द्वेषपरिहाररूप एक गुण से साधे। इत्यादि।
संज्ञावचन ही कहीं जुगुप्सित अर्थ में प्रयुज्यमान होने पर वह उपचार वचन होता है। उपचार वचन से कहे जाने वाले जुगुप्सित अर्थ में निष्ठुरता नहीं होती। किसी कारण के उपस्थित होने पर साध्वियों को साधु सूत्रवाचना दे सकते हैं-यह पूर्ववर्ती आचार्यों का कथन है। 'बिना प्रयोजन वाचना देने से वे निर्लज्ज हो जाती हैं।' प्रस्तुत सूत्र में 'कारणवश' की मीमांसा नहीं है। वह अन्यत्र है। इसलिए यह संज्ञासूत्र है। ३१७. सव्वन्नुपमाणाओ, जइ वि य उस्सग्गओ सुयपसिद्धी।
वित्थरओऽपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा।। कारकसूत्र-यद्यपि सर्वज्ञ के प्रमाण से 'उत्सर्गतः'एकांततः समचे श्रत की प्रसिद्धि है। फिर भी विस्तार से उसमें अपाय के दर्शन होते हैं, इसलिए अधिकृत अर्थ की सिद्धि करने वाला सूत्र 'कारक सूत्र' कहलाता है। जिस सूत्र में से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ'--हो वह कारक सूत्र है।' ३१८. पगरणओ पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेव-निन्नयपसिद्धी।
नमि-गोयमकेसिज्जा, अद्दग-नालंदइज्जा य॥ प्रकरणसूत्र वे हैं जिनमें स्वसमय (अपने सिद्धांत) के अनुसार आक्षेप और निर्णयप्रसिद्धि वर्णित हो।' २. अहाकम्मन्नं भुंजमाणे समणे निग्गंथे कइ कम्मपगडीओ बंधंति?
गोयमा! आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ। से केणद्वेणं भंते! एवं
वुच्चइ? (भग. १, उ.६) ३. आक्षेप का अर्थ है-सूत्रदोष अथवा पृच्छा। निर्णयप्रसिद्धि
प्रत्यवस्थानं।
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